एक कुआं है और खूब ऊँची ऊँची दीवारें है उसकी, अंदर झांको तो लगता है कि सिर्फ एक घुप्प अन्धेरा है आवाज़ दो तो दूर किसी सतह से टकरा कर लौट जाती है अपने साथ ढेरो आवाजों के साथ जबकि होती एक ही है वो, कही दीखता नहीं है इसका तल, बीच बीच में से झीर बहुत है और पानी तेजी से निकलता रहता है और कुँए की सतह और उठ जाती है पुनः पुनः पानी में उठती है लहरें, हाँ चेहरा नजर जरूर आता है पानी में और कुआं आईना बन् जाता है बहुत बड़ी बड़ी कहानियां है इस कुँए की और हर कहानी में एक नया मोड और नई कहानी है ठीक वैसे जैसे जिंदगी की और एक आवाज के बदले ढेरो आवाजे पर असली आवाज जो सुनना है वो कही नहीं...जिंदगी कुआं है या कुआं जिंदगी, पानी कुआं है या कुआं पानी.......आवाजे जिंदगी है या जिंदगी आवाजें........झीर कही नहीं है जिंदगी में बस गहराई और गहराई है बस तल का पता नहीं........लौट आओ या में जा रहा हूँ कुँए में ....(मन की गाँठे)
आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत
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