वो सब पीछे छूट गया जो हमारे साथ था हमेशा के लिए, चिपका हुआ था सिकुडती देह से, हर उस जगह से जो मेरी तुम्हारी साँसों की खुशबू से जुडा था, सब कुछ तो छूट गया अपने हिस्से की धूप, अपने हिस्से की रोशनी, अपने हिस्से की ओंस, अपने हिस्से की धूल-धुआं, हवा के वो झोंके जो लंबे झूलों पर सवार होकर नए जगत में ले जाते थे, अपने हिस्से की वे आवाजें जो फूलो के हिलने और पत्तियों की सरसराहट से पैदा होती थी, अपने हिस्से की वो मिट्टी जो जड़ो को बाँध कर रखती थी, बरसात की बूंदें जिनमे से अमृत झार झार बहता था, वो दमकते जुगनू जो टीपटीपाते हुए एक मंद आवाज में जीवन का संगीत सुना जाते थे और उन झींगुरो को पछाड़ देते थे जो रात में जुगनू की लों में बिचरते थे.....आज क्या है बस यही है पीछे छूटा हुआ सब और आनेवाले कल का भयाक्रांत कर देने वाला सच.....कुएँ की उस मुंडेर पर बैठा जीवन की उधेड़ बुन से वाबस्ता सामने फ़ैली विशाल नदी और कालान्तर में महासागर के गर्भ में अपने आपको मिला देने को व्याकुल.........बहुत बेचैनी है, तामस है पर उजास कही नहीं, दिखता कही नहीं कुछ......(मन की गाँठे)
आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत
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