Skip to main content

तुम इतना जो मुस्‍करा रहे हो … [Tribute]

♦ सोनू उपाध्‍याय

इंदौरी शाम, मालवा की कंपकंपाने वाली ठंड और खुले आकाश के नीचे बैठकर दिल को सुकून और शरीर को गर्माहट देने वाली गजल की जग जीतने वाली स्‍वर लहरियां … यह पहला मौका था जगजीत बाबू को सुनने का। वह भी लंबे समय बाद जब अपने गांव जैसे जिले की गलियों में छुप-छुप कर धड़कने वाले और गजल के नाम पर उसी दिल में जग जीतने वाले की कुछ गजलों को छाती फुलाकार बतियाने में अपनी पूरी जवानी अंगड़ाई लेने लगती थी। वैसे अपने जज्‍बातों का जरिया बनने वाली आवाज को पहली बार सुनना भी अपने लिए किसी गढ़ जीतने से कम नहीं था। बिना पास के अंधेरे में तार की फेंसिंग से अंधरे में हाथ-पैर छीलकर और हवलधारियों को चकमा देते-देते उम्र के लिहाज से मेरी लंगोट बांधने वाले उस समय के अपने एक जिंसिंया यार नवीन के साथ एकदम धप्‍प से आगे जा बैठा था, और ऐसा बैठा था कि फिर पूरा ही जवान और दो इंच छाती चौड़ी कर बाहर आया था, सच कहूं तो एकाध को पटाने की गमक और उम्‍मीद के साथ। फिर इधर पहली बार सुनने का जोश भी ऐसा चढ़ा था कि इंदौर यूनिवर्सिटी के गेट के पहले मोड़ पर विज्ञान भवन के ऊपरी कमरे में लगने वाली पत्रकारिता की क्‍लास के बेंच तो अपने दिल की आवाज बनने वाले गजलकार की गजलों का साज तो बने ही थे, एकाध बार किसी के कमरे में तो पूरी महफिल ही गा-गाकर जगजीत को खुला चैलेंज देती थी। वल्‍लाह …

इधर तो सुनने से ज्‍यादा गाने का शौक परवान चढ़ा था, तो अपन को बजाने का। अपने दोनों जिंसिया यार कैलाश और नवीन जगजीत के ऐसे दीवाने थे कि कंबख्‍तों को एक-एक गजल पूरी याद थी, जिन्‍हें सुनने के लिए अपने अधकचरे गांव और फुरसतिया कस्‍बे की ढोलक छोड़कर पहले बेंच और बाद में किसी थाली को पूरी शिद्दत से ठोंका करते।

जगजीत हर गांव, कस्‍बे के युवा और खासो-आम का बसंत थे जो उन्‍हें उनकी प्रेम की गहराई का अनुभव कराता था और उसकी आवाज बन कर उन्‍हें प्रेम की संजीदा खुमारी में डुबकी लगवा देता था। शहर के तो कई दर्जन दोस्‍त, जिनकी पान की दुकानों से लेकर साइकिल और फूल मालाओं सहित चाय के छोटे होटलों से जगजीत गाते रहे, वे ही उनके लिए असल गजल का अर्थ थे, जो ता-उम्र उनके अंदर अपने संघर्षो, दुखों और मानसिक उलझनों के साथ एक मौन सूकून देते रहे।

इधर घर से कुछ ही दूरी पर बहती नर्मदा की शाम और उसके किनारे पर शांत पड़े ठंडे बालू पर कई यारों के साथ जगजीत जिंदगी का फलसफा समझाते रहे। लाल सूरज की बिंदिया से सजी धजी ढलती शाम में रेवा की शांत और यदा-कदा नावों के चप्‍पुओं की छपा-छप के बीच जगजीत को सुनना गजल को जीने के जैसा ही रहा, लगता था मानो गजल अंदर से कोई और आकार लेने वाली हो। जगजीत की गजल और मंद साज पर उनकी आत्‍मिक छुअन के साथ हल्‍की लहर खाती आवाज उम्र के हर पड़ाव के साथ शब्‍द बनकर अपने अंदर कविता पैदा करती रही और उसे समय के साथ आंच देती रही।

इंदौर समय के साथ छूट गया, लेकिन मुंबई की तेज रफ्तार ने उसी रफ्तार के साथ जगजीत की गजलों के बेहद करीब ला दिया। कमाल यह रहा कि अपना जिंसिया यार जिसने जगजीत के लिए मन में एक नयी दुनिया बसायी, वह भी साथ-साथ रहा। कभी बांद्रा के बैंड स्‍टेंड पर समुंदर की उनींदी नींद में ढलती शाम के बीच जगजीत मंथर गति से चिड़ियों को दाने, बच्‍चों को गुड़धानी देने के लिए गुनगुनाते रहे … तो कभी सायन के सन्‍मुखानंद में सितारा देवी की पग थापों और गुलाम अली के हारमोनियम-तबले की जुगल स्‍वरलहरियों के बीच नयी साजों की उंगली थामे जगजीत की आवाज जिंदगी के अधूरेपन में राहत देने लगी।

सच, जब-जब, जहां-जहां से जगजीत को सुन कर लौटा, तब-तब वे और उनकी आवाज भीतर उतरते गये और जिंदगी के किसी खाली कोने का सुकून बन गये। गुमसुम, अकेले और जिंदगी की आपाधापी के बीच जगजीत की आवाज और उनकी गजलें एक सहारा देती रहीं। किसी दोपहर, और आंखों से नींद चुराने वाली रातों के बीच मन के किसी कोने में जगजीत हमेशा बने रहे। जब वे गा रहे हों तब भी और जब वे मौन रहे तब भी।

वैसे जगजीत को कई बार सुनने के बाद लगने लगा कि वे महज किसी महफिल में समय के किसी हिस्‍से में गूंजने वाली और साज पर लहर खाती आवाज ही नहीं थे न ही उनकी आवाज किसी समारोह या फिर संगीत लहरियों में कैद आवाज रही। दरअसल जगजीत की गजलें और उनकी आवाज इस भावविहीन और संवेदनाशून्‍य समय में इंसानी जज्‍बातों और इंसान के भीतर के दुख और शोक को सहेजकर उन्‍हें ममत्‍व, प्रेम और आत्मिक संतुष्टि पहुंचाती रही।

जगजीत आज हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनके इस तरह महफिल छोड़ जाने से गजल बंद नहीं हुई। न ही वह आवाज जिसने समय के साथ सरक रहे जग को जीता। जगजीत जिंदगी और गजल दोनों के मायने थे। उनकी गजल मनुष्‍य मन के भीतर पल रहे सौंदर्य और दुख दोनों की ही अभिव्‍यक्‍ति है। जाहिर है हर मन के अंदर की अभिव्‍यक्‍ति की आवाज को जगजीत ने ही आकार दिया। गजल के कुम्‍हार और उसकी महफिल के सर्जनहार के इस तरह चले जाने से गजल की इस दुनिया के मन में कुछ देर के लिए सही आकाश के सूनेपन ने घेर लिया है, लेकिन शब्‍द कभी खत्‍म नहीं होते, फिर जग को जीतने वाली आवाज तो हमारे अंदर सदा गूंजती रहेगी। जगजीत आप जब जब जहां जहां याद किये जाएंगे या गुगुनाएंगे, आप हमारे बीच होंगे। पूरे वैसे के वैसे, जैसे हमारे बीच रहे। आवाज के जरिये नये लोगों को प्‍यार के मायने सिखाते, उनके दुखों, संघर्षों को सहेजकर उन्‍हें प्‍यार की थपकियां देते।

(सोनू उपाध्‍याय। युवा कवि, लेखक एवं पत्रकार। दैनिक भास्‍कर, वेबदुनिया और लोकमत समाचार के बाद इस समय मंबई में रेडिफ मनी से जुड़े हैं। उनसे sonu.upadhyay@gmail.com पर सपंर्क किया जा सकता है।)


Comments

Popular posts from this blog

हमें सत्य के शिवालो की और ले चलो

आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत...

संसद तेली का वह घानी है जिसमें आधा तेल है आधा पानी है

मुझसे कहा गया कि सँसद देश को प्रतिम्बित करने वाला दर्पण है जनता को जनता के विचारों का नैतिक समर्पण है लेकिन क्या यह सच है या यह सच है कि अपने यहाँ संसद तेली का वह घानी है जिसमें आधा तेल है आधा पानी है और यदि यह सच नहीं है तो यहाँ एक ईमानदार आदमी को अपने ईमानदारी का मलाल क्यों है जिसने सत्य कह दिया है उसका बूरा हाल क्यों है ॥ -धूमिल

चम्पा तुझमे तीन गुण - रूप रंग और बास

शिवानी (प्रसिद्द पत्रकार सुश्री मृणाल पांडेय जी की माताजी)  ने अपने उपन्यास "शमशान चम्पा" में एक जिक्र किया है चम्पा तुझमे तीन गुण - रूप रंग और बास अवगुण तुझमे एक है भ्रमर ना आवें पास.    बहुत सालों तक वो परेशान होती रही कि आखिर चम्पा के पेड़ पर भंवरा क्यों नहीं आता......( वानस्पतिक रूप से चम्पा के फूलों पर भंवरा नहीं आता और इनमे नैसर्गिक परागण होता है) मै अक्सर अपनी एक मित्र को छेड़ा करता था कमोबेश रोज.......एक दिन उज्जैन के जिला शिक्षा केन्द्र में सुबह की बात होगी मैंने अपनी मित्र को फ़िर यही कहा.चम्पा तुझमे तीन गुण.............. तो एक शिक्षक महाशय से रहा नहीं गया और बोले कि क्या आप जानते है कि ऐसा क्यों है ? मैंने और मेरी मित्र ने कहा कि नहीं तो वे बोले......... चम्पा वरणी राधिका, भ्रमर कृष्ण का दास  यही कारण अवगुण भया,  भ्रमर ना आवें पास.    यह अदभुत उत्तर था दिमाग एकदम से सन्न रह गया मैंने आकर शिवानी जी को एक पत्र लिखा और कहा कि हमारे मालवे में इसका यह उत्तर है. शिवानी जी का पोस्ट कार्ड आया कि "'संदीप, जिस सवाल का मै सालों से उत्तर खोज रही थी व...