तुमसे बात करने की कितनी लंबी योजना होती है और एक सिरे से सिलसिलेवार सजाकर रखता हूँ शब्दों को, भाषा को और सारे रस उनके स्थायी भाव और अपनी आवाज के उतार चढ़ाव का भी बेहतरीन नट की तरह से अभ्यास कर लेता हूँ दिमाग में पूरी फिल्म बन् जाती है तुम्हारे चेहरे के भावो को भी अपने मन में बसा लेता हूँ कि मेरे किस शब्द पर कैसी प्रतिक्रया होगी और फ़िर में कौनसा शब्द वापररूंगा कि अपनी बात भी कह दू और तुम शुष्क भी ना हो या उत्तेजित और मुझसे बात करते लडखडाने लगो या नाराज़ ना हो जाओ, एक-एक विचार और एक-एक बात बहुत करीने से सजाकर रखने में बहुत समय लग जाता है इंतज़ार बढ़ने लगता है मन व्याकुल हो जाता है पसीने की नन्ही बुँदे मस्तक पर चहचहा उठती है और जब बहुत उम्मीदों और हिम्मत से फोन मिलाता हूँ तो सारा मामला उलट जाता है शब्द काफूर हो जाते है सिर्फ सांय सांय सुनाई देती है व्योम में गूंजते हुए शब्द जुबा पर उतरते ही नहीं बस लगता है सुनता रहू तुम्हारी आवाज और साँसों के उतार चढ़ाव की वो आवाजे जो मुझे हर दम ज़िंदा रखती है (मन की गाँठे)
आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत
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