रात नींद तो आई नहीं हाँ नींद जैसी कुछ बात जरूर थी जो देर आँखों में तैरती रही फ़िर अचानक सी कही गायब हो गयी लगा कि कुछ दरक रहा है कही कुछ छूट रहा है और फ़िर आहिस्ता आहिस्ता सब कुछ शांत हो गया- दिमाग का मवाद, ज्वर, संताप, यातना, अन्धेरा, कोलाहल, सिसकियाँ, अबोले स्वर, झींगुरों की आवाजे, आरोह-अवरोह और आर्तनाद --सब कुछ शांत हो गया एक ही झटके में.....दूर कही सन्नाटे में एक बांसुरी का स्वर् सुनाई दे रहा था, एक मूर्ति अँधेरे में दैदीप्त्मान सी चमक रही थी उसकी आभा और प्रभामंडल में खिचती सी चली गयी रात की खामोशियाँ और फ़िर लगा कि एक गजब का चुम्बकीय खिचाव है उसमे.....बस रात अपने डेने फैलाए पहुँच गयी थी पुरे साजो सामान के साथ...और यही से शुरू हुआ एक नया सफर, एक लंबी चौड़ी सुरंग से बाहर आने का जोखिम भरा सफर और फ़िर सब कुछ धीरे धीरे जाग्रत सा, धूमिल सा चला आया, एक किरण नजर आ रही है- आ रही है वो इसी तरफ आ रही है देखो देखो.....(मन की गाँठे)
आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत
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