ये जीवन की ढली हुई एक शाम है और पता नहीं कब कहा से खुरचनो सी, रेंगती हुई चली आई है स्मृतियाँ और पूछ रही हिसाब बीते कल का, पूछ रही है कल के पलों का, में ओचक सा खडा दिग्भ्रमित हूँ और इस विचित्र सी स्थिति में अपने आप को बहुत ही कष्टकर पा रहा हूँ ज्वर उमड़ रहा है उद्दाम वेग से आती जाती भावनाओं को अलभ्य पाकर बौना महसूस कर रहा हूँ .....अब समय ही नहीं है जिंदगी के हिसाब तो पुरे हो गए है और नफ़ा नुकसान तो इतने है कि इससे ज्यादा बर्बादी और हो ही नहीं सकती बस उहापोह में उलझा और अपने आप को अपने आप से छुपाता और लगभग दबोचता हुआ सा चला जा रहा हूँ इस सुरंग में कोई है जो पीछा कर रहा है, कोई है जो पुकार रहा है, कोई है जो उस मुहाने पर निरभ्र आसमान की उम्मीद जगा रहा है, कोई है जो नींद में सुलाकर सब कुछ छीन लेना चाहता है, कोई है जो मेरे से मुझको छुडा लेना चाहता है, कोई है जो सिर्फ मुझे तुमसे अलग करना चाहता है..(मन की गाँठे)
आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत
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