बड़ी दुविधा में हूँ कहा तो यह था कि आ जाना, कहा तो यह भी था कि यही रुक जाना, कहा तो यह भी था कि अब मेरा कोई भरोसा नहीं है फ़िर आनेवाले दस पन्द्रह बरस किसने देखे है, बाहर जानेपर कोई लौटता नहीं है, और वो इसीलिए तो मेरे साथ आने को तत्पर है कि लौटना तो होगा नहीं फ़िर तुम, ये, वो, सब कुछ यही छूट जाएगा, होता है और कोई ये नई बात तो है नहीं, इंसानी सभ्यता में में कोई अकेला तो रहूंगा नहीं जो जाकर ना लौटूं या आना भी होगा तो बहुत से बहुत दो तीन साल में एकाध बार, और फ़िर वो दस पन्द्रह दिन तो मेरे लिए होंगे ना-- ना कि तुम्हारे लिए, इतना बड़ा कुनबा हो जाएगा दोस्तों यारों और रिश्तेदारों का कि मुझे नहीं लगता कि तुम्हारे लिए समय निकाल भी पाउँगा, बेहतर है यही सही समय है जब कोई होगा नहीं तुम्हारी भी तमन्ना पूरी हो जायेगी, थोड़ा सा साथ रह लेंगे, घूम लेंगे और कुछ छोटी मोटी खरीददारी भी कर लेंगे, हालांकि पैसे तो है नहीं, फ़िर भी देखेंगे-वैसे भी तुम ही करोगे खर्च मुझे पता है....खैर बोलो ना आ रहे हो क्या, दरअसल में फ़िर मुझे प्लान करना पडेगा शायद हवाई जहाज से एक राउंड में वहाँ हो आऊ, तुम आ जाते तो एक झंझट खत्म हो जाता वरना हमेशा के लिए कहते रहोगे कि....दीवाली साथ नहीं मना पाए..(मन की गाँठे)
आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत...
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