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मन की गाँठे

सबसे नाराजी लेना शगल बन् गया है दोस्त हो या नातेदार, जिंदगी हो या उम्मीद, शायद यही सही है कि उसके जाने से उपजे शून्य को एक नाराजगी भर दे, कही कोई खाली स्थान नहीं रहना चाहिए.......सिखाया तो ये गया था कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है सबसे काम पडता है, मिलजुलकर रहना चाहिए...और लगभग यही तो वो करता आया था गत चालीस बरसों में - जब से होश सम्हाला था सबके साथ हिल मिलकर रहने की ही कोशिश कर रहा था लगातार इसके लिए अपने आपको कितनी बार मारना पडा था जूझना पड़ा था अपने वजूद से अपनी सोच से कि वो समझौते नहीं करता पर सीखे हुए ज्ञान को परखना भी था और लोगो की भीड़ में अपनी अस्मिता बनाकर भी रहना था, पर ना वो लोगो में रह पाया, ना अपने आप को बना पाया, टूटता रहा लगातार और फ़िर एक दिन अचानक भुर्र से बिखर गया, जब उसके अपने किसी ने कह दिया कि यह सब क्या पागलपन है और भाड में जाओ तुम और तुम्हारे काम- धाम, ख्वाब, और विचार .बस सन्न सा रह गया था बस यही देखना था अब उसे इस उम्र में..... अब कोई रंजो गम नहीं है अपने आप से भी, सब खत्म हो गया है जब उसका अपना ही कोई छूट जाए तो ऐसे जीने से क्या.........बस...वो चल दिया.......एक क्षितिज की ओर हमेशा के लिए....(मन की गाँठे)

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हमें सत्य के शिवालो की और ले चलो

आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत

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मुझसे कहा गया कि सँसद देश को प्रतिम्बित करने वाला दर्पण है जनता को जनता के विचारों का नैतिक समर्पण है लेकिन क्या यह सच है या यह सच है कि अपने यहाँ संसद तेली का वह घानी है जिसमें आधा तेल है आधा पानी है और यदि यह सच नहीं है तो यहाँ एक ईमानदार आदमी को अपने ईमानदारी का मलाल क्यों है जिसने सत्य कह दिया है उसका बूरा हाल क्यों है ॥ -धूमिल

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