ये शब्द ही हे, ये शब्द ही थे और ये शब्द ही होंगे- जब संसार खत्म होकर फ़िर से फीनिक्स की तरह अपनी ही राख से एक बार पुनः सृजित होने के लिए उठ खडा होगा तब हिसाब होगा शब्दों का और हर उस लिखे गए वाक्य का जो शब्दों से निर्मित था. हिसाब होगा कि इन शब्दों ने क्या कहर ढाया था और कितने रिश्तों को जोड़ा-तोड़ा और पिरोया था एक सूत्र में, ये शब्द ही होंगे जो परिभाषित करेंगे कि अब नए संबंधो की धुरी कैसी हो, कौन तय करें कि आभार, सहृदय, क्षमा, उपकार, सहजता, रिश्ते, भावनाएं, चोट, व्यंग्य, अभिधा, लक्षणा और तंज के क्या मायने है? आज जो शब्द चुभते है या प्रफुल्लित कर देते है वे मुझे लगता है यहाँ की भाषा के नहीं किसी और गृह की भाषा के है- क्योकि हम शब्दों के पीछे झांकने को तो तैयार नहीं- हाँ, बस, युही, किन्तु, परन्तु और बस.....में खो जाते है और फ़िर बाद में बड़े-बड़े जवाब और तीर तरकश से सामना करते है या यूँ कहू कि बचाव !!! अपने ही शब्दों का, अपनी ही अभिव्यक्ति का....खैर...शब्द नहीं होंगे तो दुनिया कितनी सुखी होगी और हम सब पुनः एक बार फ़िर से जुड पायेंगे उस जड़ से, उन कोमल तंतुओ से जो रिश्तों को भावनाओं की मनोदशा से जोडते है और एक इंसान होना सिद्ध करते है.(मन की गाँठे)
आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत
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