इस पानी के विस्तार में गहराई तो है, उन्मुक्तता भी, स्वछन्द भी है विचरने को पर बाँध दिया है इस पानी को ताकि दोहन किया जा सके और वहाँ ढाला जा सके धकेला जा सके जहां जरूरत है जैसे जन्म के समय हम सब थे स्वछन्द उन्मुक्त और खुले खुले से पर बाद में एक बागड में धकेल दिए गए मूल्य, संस्कार और मर्यादाओं की चौहद्दी में और कहा लो तुम अब आज़ाद हो!!! अब हम भी ऐसे ही बंधे है चारों ओर से अपने अपने दायरो में घूम रहे है एक घिन्नी की तरह और वो सब पा लेना चाहते है जो इस घेरे में मिल ही नहीं सकता, इस चक्कर घिन्नी में गोल गोल है सब, मंद थाप पर चहकते हम बेचैन है कि कब मुक्त होंगे इस माया से और संजाल से कि इन दीवारों को, सीमाओं को तोडकर फांद जाए ये बंधन और फ़िर कहे एक बार जोर से चिल्लाकर कि आज में सच में आज़ाद हूँ..........(मन की गाँठे)
आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत
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