एक सुबह और हो गयी और वही सब है चारों ओर उसी सूरज का तेज, पक्षियों का कलरव, हवा की बाट जोहते पेडो के पत्ते, आसमान की ओर बढ़ते पेड़, ओंस की बुँदे यहाँ वहा, सूनी सड़क मानो इंतज़ार में इसकी उम्र ही गुजर गयी है, दूर से आती रेल की आवाज जो पता नहीं कब से कहा आ-जा रही है और किन्हें क्यों कहा ले जा रही है जब सब एक दिन खत्म होना है तो कही जाने की जरूरत क्या है और किस भीड़ का हिस्सा होते जा रहे है इस सफर में, शुष्क पटरियां कांपने लगती है दूर से आवाज सुनकर, इस सुबह की कभी दोपहर होती है कभी शाम और आख़िरी में रात यह कब तक चलेगा इस दुष्चक्र को रोकना होगा और फ़िर देखना होगा, हाफते हुए, सुस्ताते हुए सोचना होगा कि इस सुबह को या तो रोक दिया जाए या इस सारे क्रम को उलट दिया जाए, मन के कुलान्चो की कोई सीमा नहीं, पगला है रे....!!!(मन की गाँठे)
आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत
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