कल रात एक सपना देखा जिसमे जीवन था और सब कुछ वैसा ही हो रहा था जैसा हम सोचते है......वो सब उमंगें पूरी हो रही थी और स्वप्न जीवन की वास्तविकता में बदल रहे थे, कुछ भी ऐसा नहीं था कि सोचा और पूरा ना.....दोस्त-यार, परिजन सब खुशहाल, हर तरफ माहौल में एक जीवन्तता और उत्साह, हंसी मानो बिखरी पडी हो और पूछ रही हो कि किसके चेहरे पर बिखरना है और वैभव ढून्ढ रहा हो कि कहा जाकर अपने सौगातो की बरसात कर दू , ना दुश्चिंताएं -ना दुख्स्वप्न, शब्दकोष को पुनः परिभाषित किया गया और उन सारे शब्दों को हकाल कर बाहर कर दिया जो वजूद को अप्रियकर बनाते है, इतनी खुशिया कि जीवन छोटा पडने लगा समेटने में तो जीवन की भी डोर लंबी कर दी गयी !!! सुखद है ऐसा स्वप्न, भोर का स्वप्न, जीवन का स्वप्न, एक लंबे मार्ग पर चलने के लिए कष्टों के बीच का जाग्रत स्वप्न, अंधेरी रात में बेचैन होकर टकराते हुए मौत के अंदेशो के बीच एक सुनहरे कल का स्वप्न और सबसे ज्यादा अपने आप को ज़िंदा रखने के लिए मुगालते का स्वप्न......(मन की गाँठे)
आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत
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