चकमक का ३०० वाँ अंक ना जाने कितनी यादें और पुरानी बाते दे गया गुलज़ार साहब, दोस्त यार , नए दोस्त, चरणदास चोर हबीब जी की याद नगीन का संयोजन और ना जाने क्या........एकलव्य का आज भी बंधुआ हूँ कुछ भी हो जाउंगा तो जरूर और यही तो है जो ज़िंदा रखता है मुझे..........शुक्रिया एकलव्य और चकमक...........इस सुहाने दिन के लिए और वो सब याद दिलाने के लिए जो आनेवाले कल का भरोसा दिलाता है कि सब ठीक होगा धीरज धरो................सुशील, कार्तिक, मनोज, शशि और सारे एकलव्य के दोस्तों का शुक्रिया नाराजी अपनी जगह और प्रेम मोहब्बत अपनी जगह
यह चकमक के ३०० वे अंक का समारोह था भारत भवन भोपाल में २१ से २३ अक्टूबर तक और इसके पूर्व ही मैंने एक छोटी सी चकमक से जुडी यादों को लेकर तल्ख़ टिप्पणी लिखी थी जो फेसबुक पर छपी फ़िर कई प्रतिक्रियाए और राकेश दीवान की लंबी मेल एकलव्य के कामकाज और मिजाज़ को लेकर हाँ इस बीच कार्तिक का फोन आ ही गया था मनोज ने जोड़ा था कि २३ के कार्यक्रम में डिनर के लिए रूकना...........
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