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Showing posts from October, 2011
अबोला तो था नहीं पर एक चौमासा हो गया है कि कही से सहजता आती ही नहीं है और मौसम की मार बार बार पडने लगती है.............कितना पानी गिर चुका और अब तो सुबह सुबह ओंस की बूंदें भी याद दिला जाती है कि हम तो भूल ही गए है आँखों की कोरो से भी लगभग ऐसी ही धार निकल पडती है जब किसी फूल को खिलते हुए देखकर गिरते हुए देख लेता हूँ या उस तितली को देखकर जो घूम घूम कर मधु तो ले जाती है पर इन ओंस की बूंदों के समय तक नहीं पंहुच पाती........बस फिजां में एक सुरसुरी है और फ़िर लग रहा है कि हवाएं फ़िर से पूरब की ओर बहने लगी है....
ये शायद आवाज़ ही थी जिसने हमें इतने करीब ला दिया और कमोबेश रोज की आदत डाल दी है अब ये कही दूर तक सुनाई नहीं देती तो दौडने लगता हूँ पागलो की तरह, गहरे अँधेरे कुँए से लेकर विशालकाय समुद्र तक और निरभ्र आसमान से लेकर वायु में तैरते बिम्बो तक तुम्हे ढून्ढता हूँ अक्सर .एक बार फ़िर वो चलायमान हो जाए गुंजा दे कण कण को और फ़िर बस....... ना में झगड रहा था ना तुम बस यूँही ऐसे ही क्या हो गया कि तुम और में दोनों ही अनमने से हो गए जबकि वजह कुछ थी ही नहीं ना है...........ये क्या हो रहा है......और क्यों......दरअसल में दिक्कत कही और है और धूल में लठ्ठ पीट रहे है .. आवाज के इस जादू को कितना सुनना जरूरी है या गुनना मुझे लगता है कि बस यूँही इस आवाज़ को व्योम तक गूंजने दो शायद तब तक सब ठीक हो जाएगा............

तुम्हारे लिए................सुन रहे हो..............कहा हो....................

मुझको भी तरकीब सीखा कोई यार जुलाहे अक्सर तुझको देखा है एक ताना बुनते जब कोई तागा टूट गया या खत्म हुआ फ़िर से बाँध के और सिरा कोई जोड़ के उससे में आगे बुनने लगता हूँ तेरे इस ताने में लेकिन इक भी गाँठ गिरह बुनकर की देख नहीं सकता है कोई मैंने तो एक बार बुना था एक ही रिश्ता लेकिन उसकी सारी गिरहें साफ़ नज़र आती है मेरे यार जुलाहे ...... मुझको भी तरकीब सीखा कोई यार जुलाहे

तुम तक मेरी आवाज ही नहीं पहुँच रही है

इस शहरे सितमगर में पहले ,मंज़ूर बहुत से कातिल थे ! अब खुद ही मसीहा कातिल है, ये ज़िक्र बराबर होता है !! - मलिकज़ादा मंज़ूर अहमद साहब कहा हो कितने दिनों से आवाज दे रहा हूँ पागलो की तरह इस बीच बाजबहादुर महल, गोलकुंडा, सारे दरबार महल हो आया हूँ. दूर से नदियों की धार देख ली पर तुम तक मेरी आवाज ही नहीं पहुँच रही है.............कहा हो......

तुम तक मेरी आवाज ही नहीं पहुँच रही है

इस शहरे सितमगर में पहले ,मंज़ूर बहुत से कातिल थे ! अब खुद ही मसीहा कातिल है, ये ज़िक्र बराबर होता है !! - मलिकज़ादा मंज़ूर अहमद साहब कहा हो कितने दिनों से आवाज दे रहा हूँ पागलो की तरह इस बीच बाजबहादुर महल, गोलकुंडा, सारे दरबार महल हो आया हूँ. दूर से नदियों की धार देख ली पर तुम तक मेरी आवाज ही नहीं पहुँच रही है.............कहा हो......

संदर्भ---------कल भारत में पैदा हो रहा है सात अरबवां बच्चा

संदर्भ---------कल भारत में पैदा हो रहा है सात अरबवां बच्चा........और यूनाईटेड नेशंस के जनसंख्या स्थिरीकरण कोष के अधिकारी जो विशुद्ध भारतीय है और खूब मोटी मोटी तनख्वाह लेकर सुविधाएँ भकोस रहे है उनके लिए मेरा कहना है कि जनसंख्या कम करने की बात करने वाले अक्सर भूल जाते है कि वो पैदा हो चुके है....................दरअसल में यूनाईटेड नेशंस के सभी बेमानी और बेगैरत लोगो को हिन्दुस्तान से कुछ लेना देना नहीं है सिर्फ टेक्स फ्री तनख्वाह, भारतीय प्रशासनिक अधिकारियों की चाटुकारिता और बेवजह की रपटे छापकर कागज़ के बहाने पर्यावरण का नुकसान कर रहे है इन सबको बाहर करे बिना विकास नहीं हो सकता...............अब सात अरबवां बच्चा पैदा हो ही रहा है ना....
If we can nt remember things, unable to fulfill Promises, and can nt make things happen in Life we dont deserve to be HUMAN BEING nor a part of word called COMMUNITY OR SOCIETY.

देवास के चुतियापे

नए नवेले जब भी कुछ लिखते कविता, कहानी या घटिया सी तुकबंदी या चाहे पत्र संपादक के नाम भी, तो शहर के चार पांच मंचों पर जाकर उल्टी कर देते, कही से प्रेस विज्ञप्ति छपती तो उसकी कटिंग काटकर घर में जडवा कर रख लेते और फ़िर पुरे मोहल्ले को बताते कि लों हम लेखक बन् गए है अब तो, और वो दिन दूर नहीं जब निर्मल वर्मा हमारे घर पानी भरेंगे. एक बड़े बुजुर्ग ख्यातनाम थे तो कई दुस्साहस करके उनके घर पंहुच जाते कि मैंने लिखा है वो बड़े प्यार से चाय पिलाते और कहते "मियाँ बढ़ाई का काम सीख लों बीवी बच्चे पाल लोगे, इस कविता में कुछ नहीं रखा है बढ़ईगीरी में चार पैसे कमा लोगे" पर फ़िर भी ससुरे सुनते नहीं थे लिखते तो फ़िर भी थे --तूफानी और दर्द से लेकर ना जाने क्या क्या नाम थे इन कवियों के. हरदा के जैसे कवि प्रताडना मंच भी बनाने के प्रयास हुए पर सफल नहीं हो पाए आजकल ये टुच्चे कही भी बैठकर माँ हिन्दी भारती की सेवा कर लेते है. एक दूसरे के सामने तारीफ़ के पुल और पीठ पीछे मलयालम या कन्नड़ से अनूदित कर साहित्य की माँ भैन कर देते है और फ़िर कहते है साले सब चुतिया है. सुना है सरकार का भी कोई मंच इस तरह के काम को प्रमो...

देवास के चुतियापे

सुबू चार पांच बजे उठकर बस स्टेंड पहुँचना और भोपाल जानेवाली बसों से अखबार उतारना, गिनना, छोटे लोंढो को बांटने को देना, फ़िर बचे खुचे अखबार बेचना, नो बजे के करीब घर जाना थोड़ी देर तक और सोना, फ़िर बारह बजे घर से झकास खादी का सफ़ेद कलफ किया हुआ कुर्ता पाजामा पहनकर निकलना और किसी भी सरकारी विभाग में जाकर ब्लेकमेल करना कि रूपया दे दो ठाकुर वरना कल के अखबार में छप जाएगा पुरे का पूरा घोटाला....आते समय थाने से दारू की बोतल का इंतज़ाम, देर रात सरकारी अस्पताल में घुसकर जवान खूबसूरत लेडी डाक्टर से हुज्जत करना फ़िर उसके हाथ से चांटे खाना, फ़िर अस्पताल के खिलाफ लिखना कि सुविधाएँ नहीं है बला बला ........ये सब चुतियापे पत्रकारिता कहलाता है इस देवास में!!! भला हो कि अब अखबार वाले ब्यूरो रखने लगे है जिनके सरकारी भाई बहन अखबार का पेट भरते है, कमीशन वसूलते है, फोन अटेंड करते है और नौकरी तो बिलकुल नहीं करते अब ये चुतियापे तो देवास में ही संभव है ना. ( देवास के चुतियापे)

देवास के चुतियापे

ये देवास के उस बड़े स्कूल की कहानी थी जहा केन्द्रीय सरकार के बच्चे पढते थे इस स्कूल के प्राचार्य जो पुरे बुन्देलखंडी थे और ऊपर से कवि, शहर के वामपंथी से हुई दोस्ती ने स्कूल को सुलभ शौचालय बना दिया किसी भी पब्लिक प्रोग्राम में वो स्कूल का सामान उठा लाते और फ़िर अपने गाने सुनाते, घर से बिगड़े नवाब की उसी स्कूल की मास्टरनियो और चपरासिनो ने वो झाड़ू से पीटा था कि शहर छोड़कर भाग गए पर फ़िर भी आते रहे अपनी कमर टूटने तक. उनके गीत उस वामपंथी ने छापे और शहर के भांडो से खूब गवाए......एक दूर बसी कालोनी में शिक्षा के इस पेशेवर चरित्र की बड़ी कहानिया है, बीबी ने भगा दिया आख़िरी दिनों में दोनों बेटियों ने वो हालत की कि मियाँ कही के नहीं रहे बुढापे में सडते रहे पर देवास आना जाना छूटा नहीं, शिक्षा का कीड़ा एड्स के मानिंद था और महिलाओं से दोस्ती की सनातन इच्छाएं बरकरार अभी भी है....... और शहर के पढ़े लिखे लोग उसे चुतिया कहते थे...(देवास के चुतियापे)
‎ Om Varma की ओर से श्रीलाल शुक्ल को दो पंक्तियाँ .....अदभुत.........है ओम भाई.......... " जब तक लंगड़ को नक़ल , मिले नहीं तत्काल | तब तक विसरेंगे नहीं, हमें कभी श्रीलाल ||"

देवास के चुतियापे

जब अन्ना का नाम भी नहीं था इस देवास में, तब से कुछ लोग झोले उठाये शहर की फिजा बदलने चले थे एक खातेगांव से आया था ग्यारहवी फेल होकर, एक संघ से दीक्षित होकर, दो इश्क के मारे थे, एक घर से भागकर, एक लंबी चौड़ी पढाई करके, एक पंडिताई छोडके बाकी यही के थे बेरोजगार और भडभूंजे और फ़िर बढ़िया दूकान बनी थी जो सब करती थी ज्ञान विज्ञान से लेकर भजन-पूजन, देवास के लोग इनको चुतिया कहते थे कि ये लोग कहा छोटे शहर में कार्ल मार्क्स की बात करते है हेली के धूमकेतु की कहानी सुनाते है और जिले भर के मास्टरों की जमात जो साली होती ही हरामखोर और ट्यूशनबाज के भरोसे समाज में क्रान्ति लायेंगे पर एक बात तो थी ये चूतिये बात अक्ल की करते थे और पढ़े लिखे चूतिये इनकी बिरादरी में जाते और दरी उठाने का काम जरूर करते थे बाद में सब तो यहाँ वहा निकल गए और कुछ यही बस गए और जो इन्हें कुछ भी कहते थे वो आज चूतिये बने है और उस समय के चूतिये आज खा रहे है देश विदेश की मलाई और ना जाने क्या क्या, शहर तो नहीं बदला पर चुतियाई के अंदाज बदल गए है वामपंथियों के हौसले देश् भर में भजन पूजन से बुलंद हो चले है इसको कहते है असली चुतियापे. (देव...

देवास के चुतियापे

कुल जमा चार टाकीज और दो कालेज, सारे शहर के लोंढे और खूबसूरत बनने की नाकाम कोशिश करती लडकिया इधर कुछ ज्यादा ही मेहरबान थी शहर के इन आवारा कमीनो पर, असल में इंदौर जाती तो पढने थी पर फसाती थी खूबसूरत चाकलेटी लोंढो को पर वो इंदोरी ससुरे सिर्फ रस पीना जानते थे और फ़िर चूसकर फेंक देने में माहिर, सो इस शहर के चूतिये ही ठीक थे जो इन्डियन काफी हाउस में दोसा खिला देते या जवाहर चौक का पान खिला देते या बिलावली जाकर एक चुम्मे के बदले कुछ रूमाल दे देते या हाट बाजार में मिलने वाली सस्ती सी लिपस्टिक ला देते थे, एकमात्र पार्क मल्हार स्मृति मंदिर में जाकर बच्चो की ट्रेन में घूमा देते और फ़िर चुपचाप लडकियों की शादी में वेटर का काम भी करते और लडकियों की विदाई के समय मुकेश का गीत गाते सजनवा बैरी हो गए हमार....साले चूतिये थे ऐसे कितने ही चुतियो को उल्लू बनाकर ढेरो लडकियां बिदा हो गयी और आज जब ठसके से मायके में लौटती है तो ये बेचारे चुतियो की तरह मामा बनकर उनके बच्चो को उसी मल्हार स्मृति मंदिर में पानी पूरी खिलाते है (देवास के चुतियापे)

देवास के चुतियापे

शहर के चारों ओर फ़ैली हुई बिल्डिंगे, तालाब, बड़े मैदान, राजे रजवाडो की कब्रे, सुने टाकीज और अंगरेजी फिल्मो के चटकीले पोस्टरों से अटा पड़ा बाजार बस इसी सबके बीच कई लडकिया जवान हुई और भागी मुसलमानों, सिंधियो और मील मवाली मजदूरों के साथ- ये शहर के हिन्दू ठेकेदार बताते है अब इनका कौन बताए कि इंदौर मुम्बई या नागदे से लाकर इन्होने क्या क्या पाप नहीं किये, क्या गलत सलत धंधे नहीं किये, ड्रग्स नहीं बेचे या लडकियो की दलाली नहीं की. ये शहर के नाम पर ठेकेदारों की जो फौज पैदा हो गयी है आजकल और दिनभर मुह काला करके रात को परिवार के साथ लायंस या रोटरी क्लबों के "इवेंट" करते है उन्हें कौन बताए कि सालो, नालायको इसे मालवी में चुतियापा कहते है पर कुछ भी हो ये चुतियापे है बड़े प्यारे......(देवास के चुतियापे)

देवास के चुतियापे

दीपावली के चार दिन कब कैसे गुजर रहे है पता ही नहीं चल रहा ....आज पूरा दिन देवास के भडभुन्जो के साथ रहा, भाट और चारणों की परम्परा के वाहक ये लोग कुछ करते नहीं बस विशुद्ध बकवास, मुफ्त की हरामखोरी, शहर में फ़ोकट की हवाबाजी, दादागिरी जिसे मालवी में चुतियापा कहते है बस ऐसे ही ये दोस्तों के नाम पर कलंक और फ़िर भी प्यारे सारे शहर भर के लफडो की पुख्ता जानकारी रखने वाले ये भडभुन्जे बस चने सेकते रहते है और मर्द होने के दावे करते है......पर फ़िर भी सब मिलाकर ये मेरे लोग थे और हमेशा रहेंगे प्यारे. इनकी बकवास भी प्यारी लगती है ना, क्या करू सारे समझदारी के बाद भी इनका चुतियापा अच्छा लगता है.....(देवास के चुतियापे )

दिल ढूंढता है फ़िर यही फुर्सत के रात दिन............चकमक और गुलज़ार के साथ तीन दिन..

चकमक का ३०० वाँ अंक ना जाने कितनी यादें और पुरानी बाते दे गया गुलज़ार साहब, दोस्त यार , नए दोस्त, चरणदास चोर हबीब जी की याद नगीन का संयोजन और ना जाने क्या........एकलव्य का आज भी बंधुआ हूँ कुछ भी हो जाउंगा तो जरूर और यही तो है जो ज़िंदा रखता है मुझे..........शुक्रिया एकलव्य और चकमक...........इस सुहाने दिन के लिए और वो सब याद दिलाने के लिए जो आनेवाले कल का भरोसा दिलाता है कि सब ठीक होगा धीरज धरो................सुशील, कार्तिक, मनोज, शशि और सारे एकलव्य के दोस्तों का शुक्रिया नाराजी अपनी जगह और प्रेम मोहब्बत अपनी जगह यह चकमक के ३०० वे अंक का समारोह था भारत भवन भोपाल में २१ से २३ अक्टूबर तक और इसके पूर्व ही मैंने एक छोटी सी चकमक से जुडी यादों को लेकर तल्ख़ टिप्पणी लिखी थी जो फेसबुक पर छपी फ़िर कई प्रतिक्रियाए और राकेश दीवान की लंबी मेल एकलव्य के कामकाज और मिजाज़ को लेकर हाँ इस बीच कार्तिक का फोन आ ही गया था मनोज ने जोड़ा था कि २३ के कार्यक्रम में डिनर के लिए रूकना...........

दिवाळीच्या हार्दिक शुभेच्छा

तेजोमय झाला आजचा प्रकाश, जुना कालचा काळोख, लुकलुकणार्‍या चांदण्याला किरणांचा सोनेरी अभिषेक, सारे रोजचे तरीही भासे नवा सहवास, सोन्यासारख्या लोकांसाठी खास, दिवाळीच्या हार्दिक शुभेच्छा

मेरी मां अब ढेरों मन मिट्टी के नीचे सोती है

अख़्तरुल ईमान की यह नज़्म मुझे बेहद पसंद है. इसका उन्‍वान है 'तहलील' यानी अंत:विश्‍लेषण. लिप्‍यंतर एक बहुत ही प्‍यारे शायर फ़ज़ल ताबिश ने किया था. मेरी मां अब मिट्टी के ढेर के नीचे सोती है उसके जुमले, उसकी बातों, जब वह जि़ंदा थी, कितना बरहम (ग़ुस्सा) करती थी मेरी रोशन तबई (उदारता), उसकी जहालत हम दोनों के बीच एक दीवार थी जैसे 'रात को ख़ुशबू का झोंका आए, जि़क्र न करना पीरों की सवारी जाती है' 'दिन में बगूलों की ज़द में मत आना साये का असर हो जाता है' 'बारिश-पानी में घर से बाहर जाना तो चौकस रहना बिजली गिर पड़ती है- तू पहलौटी का बेटा है' जब तू मेरे पेट में था, मैंने एक सपना देखा था- तेरी उम्र बड़ी लंबी है लोग मोहब्बत करके भी तुझसे डरते रहेंगे मेरी मां अब ढेरों मन मिट्टी के नीचे सोती है सांप से मैं बेहद ख़ाहिफ़ हूं मां की बातों से घबराकर मैंने अपना सारा ज़हर उगल डाला है लेकिन जब से सबको मालूम हुआ है मेरे अंदर कोई ज़हर नहीं है अक्सर लोग मुझे अहमक कहते हैं.