असल में लडता हूँ बार -बार में अपने आप से, समझता हूँ अपने आप को, पर हर बार नाकाम हो जाता हूँ व्यावहारिक बनने की कोशिश भी की और लगा कि कोई उम्मीद और अपेक्षा अपने आप से भी ना रखूँ पर हर बार ना जाने क्यों ये बावला मन अपने में ही उलझ जाता है और फ़िर काबू नहीं रहता लगता है कि बस खत्म कर दू पर मन के किसी कोने में अंकित तस्वीर पर जाकर अटक जाता हूँ और बस .......जीवन फ़िर दौडने लगता है पटरी पर, उसी जद्दोजहद के साथ पूरी शिद्दत से.....
आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत...
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