बहुत सुन्दर कविता, यह है बाजारीकरण और भौतिक दूरियां बढ़ाने के बाद भी अपनापन और शोषण का नया पिटारा जो बाजार ने सीखाया है...............बहुत सही ढंग से मिथिलेश ने लिखा है इस बात को.........
Mithilesh Ray सारा देश हमारा है मेरा एक दोस्त तवांग में मनायेगा दीवाली
अपने घर गोंडा नही आ पायेगा
मेरा छोटा भाई सोनू कलकत्ते में जलाएगा दीप इस बरस
वही के बुजुर्गों को करेगा पैर छू कर प्रणाम
और लेगा आशीष
मेरे चाचा जो लुधियाने की फेक्ट्री में मजदूरी करता है
इस बरस वही की काली से मांगेगा बच्चे की सलामती की दुवा
लालपुर नही आ पायेगा
दीवाली में मालिक गिफ्ट बांटता है
बखशीश देता है....
मै भी यही रह रहा हूँ दीवाली में
जिनके साथ जेठ की धुप झेली है
भादो की बारिश
पूस की ठण्ड
और बेरोजगारी की धुल
उन्ही को गले मिलाने हैं...
अपने घर गोंडा नही आ पायेगा
मेरा छोटा भाई सोनू कलकत्ते में जलाएगा दीप इस बरस
वही के बुजुर्गों को करेगा पैर छू कर प्रणाम
और लेगा आशीष
मेरे चाचा जो लुधियाने की फेक्ट्री में मजदूरी करता है
इस बरस वही की काली से मांगेगा बच्चे की सलामती की दुवा
लालपुर नही आ पायेगा
दीवाली में मालिक गिफ्ट बांटता है
बखशीश देता है....
मै भी यही रह रहा हूँ दीवाली में
जिनके साथ जेठ की धुप झेली है
भादो की बारिश
पूस की ठण्ड
और बेरोजगारी की धुल
उन्ही को गले मिलाने हैं...
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