वो आके पहलू में ऐसे बैठे ,
की शाम रंगीन हो गयी है,
जरा जरा सी खिली तबियत,
जरा सी ग़मगीन हो गयी है
कभी कभी शाम ऐसे ढलती है,
जैसे घूँघट उतर रहा है,
तुम्हारे सीने से उठता धुवां,
हमारे सीने में उतर रहा है !
ये शर्म है या हया है, क्या है,
नज़र उठाते ही झुक गयी है,
तुम्हारी पलकों से गिर के शबनम
हमारी आँखों पे रुक गयी है !
की शाम रंगीन हो गयी है,
जरा जरा सी खिली तबियत,
जरा सी ग़मगीन हो गयी है
कभी कभी शाम ऐसे ढलती है,
जैसे घूँघट उतर रहा है,
तुम्हारे सीने से उठता धुवां,
हमारे सीने में उतर रहा है !
ये शर्म है या हया है, क्या है,
नज़र उठाते ही झुक गयी है,
तुम्हारी पलकों से गिर के शबनम
हमारी आँखों पे रुक गयी है !
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