आखिर वही हुआ जिसका डर था म् प्र स्थापना दिवस के कार्यक्रम में बेचारे बच्चो को ही धूप झेलना पडी , बड़े ही अशिष्ट ढंग से आयोजित कार्यक्रम में फ़िल्मी गीतों पर ठुमकते बच्चे अपने गुरुओ के साथ पुरे मैदान में नाचते रहे और इनाम के नाम पर उन्हें एक लोहे का तमगा मिला पूरी टीम को, पानी तक की व्यवस्था नहीं थी बाकी तो छोडिये. मुझे शिक्षकों पर तरस आता है कि मालवा के समृद्ध इलाके में जहा लोकगीतों की इतनी भरमार है वहा गोविंदा के फिल्मो के गीत और भौंडे गीतों पर बच्चे ठुमक रहे थे, क्या विरासत की थाती को समझेंगे ये बच्चे ? एक आदिवासी नृत्य हुआ था जिसमे मंडला के मुडिया और बैगाओं का नृत्य था काश म् प्र में आदिवासियों को इतने कपडे ही मिल जाते जितने इन बच्चो ने पहन रखे थे तो मप्र का विकास ५५ वर्षों के शासकीय प्रयासों की झलक या उपलब्धि ही दिखा देता पर अफसोस आज भी आदिवासी नंगे -भूखे है, विस्थापित हो रहे है और मप्र के स्थापना दिवस पर हम उन्हें उन्नत खुशहाल और तरक्की में जुड़ा बता रहे है.....जय हो...........हम सब हमाम में लगातार नंगे हो रहे है और हमें शर्म भी नहीं है ...
आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत...
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