कहा तो ये भी था कि में उन सपनों में एक बार जरूर जाऊ जहां हम दोनों ने एक ज़िंदगी को एक साथ एक ही रूपहले परदे के एक ही तानो से बुनी जाली पर देखा था - पर आज ना वो सपने है, ना रूपहला पर्दा, ना वो जाल जो जीवन कहलाता है, ना वो सब जो अपना हो सकता था बस..व्यथा है जीवन की निरपेक्ष साँसे है और जंजाल है. फ़िर भी जीवन की धडकने चल रही है अशेष कुछ भी नहीं है और अलभ्य सा होता में लगातार जूझ रहा हूँ तुमसे, अपने आप से, हर उस शै से जो कुच्छ कह जाती है चुपके से मेरे कान में घनघना जाती है एक उन्मुक्त हंसी और फ़िर हर पल, हर घड़ी और हर जगह ठहाके और यादें!!! स्पन्दन ही जीवन है और इसे बनाए रखना मजबूती या मजबूरी, नहीं पता पर बहुत ठोस हूँ अभी भी टूटकर और बिछडकर अपनी ज़िंदगी से जिसे में सच में ज़िंदगी कहता, मानता और जानता हूँ.........जी जाउंगा फ़िर से एक लंबा पल जिसमे वही सपने, वही जाल, वही ताना-बाना- जिसे कबीर कहता था काहे का ताना काहे को धरनी....कौन तार से जब जोड़ी चदरिया झीनी झीनी चदरिया (मन की गाँठे)
आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत...
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