कोशिश तो की, पर रूह तक नहीं पहुंच पाया रॉकस्टार!मिहिर पंडया का अदभुत ब्लॉग और गजब का अकादमिक अनुशासन
बीस के सालों में जब अंग्रेजी रियासत द्वारा स्थापित ‘नयी दिल्ली योजना समिति’ के सदस्य जॉन निकोल्स ने पहली बार एक सर्पिलाकार कुंडली मारे बैठे शॉपिंग प्लाजा ‘कनॉट प्लेस’ का प्रस्ताव सरकार के समक्ष रखा था, उस वक्त वह पूरा इलाका कीकर के पेड़ों से भरा बियाबान जंगल था। ‘कनॉट सर्कस’ के वास्तुकार रॉबर्ट रसैल ने इन्हीं विलायती बबूल के पेड़ों की समाधि पर अपना भड़कीला शाहकार गढ़ा।
इसी कनॉट प्लेस के हृदयस्थल पर खड़े होकर जनार्दन जाखड़ उर्फ ‘जॉर्डन’ जब कहता है,
“जहां तुम आज खड़े हो, कभी वहां एक जंगल था। फिर एक दिन वहां शहर घुस आया। सब कुछ करीने से, सलीके से। कुछ पंछी थे, जो उस जंगल के उजड़ने के साथ ही उड़ गये। वो फिर कभी वापस लौटकर नहीं आये। मैं उन्हीं पंछियों को पुकारता हूं। बोलो, तुमने देखा है उन्हें कहीं?”
तो मेरे लिए वो फिल्म का सबसे खूबसूरत पल है। एक संवाद जिसके सिरहाने न जाने कितनी कहानियां अधलेटी सी दिखाई देती हैं। तारीख को लेकर वो सलाहियत, जिसकी जिसके बिना न कोई युद्ध पूरा हुआ है, न प्यार। लेकिन ऐसे पल फिर फिल्म में कम हैं। क्यों, क्योंकि फिल्म दिक-काल से परे जाकर कविता हो जाना चाहती है। जब आप सिनेमा में कहानी कहना छोड़कर कोलाज बनाने लगते हैं, तो कई बार सिनेमा का दामन आपके हाथ से छूट जाता है। यही वो अंधेरा मोड़ है, मेरा पसंदीदा निर्देशक शायद यहीं मात खाता है। आगे की कथा आने से पहले ही उसके अंश दिखाई देते हैं, किरदार दिखाई देते हैं। और जहां से फिल्म शुरू होती है, वापस लौटकर उस पल को समझाने की कभी कोशिश नहीं करती। रॉकस्टार में ऐसे कई घेरे हैं, जो अपना वृत्त पूरा नहीं करते। मैं इन्हें संपादन की गलतियां नहीं मानता। खासकर तब जब शम्मी कपूर जैसी हस्ती अपने किरदार के विधिवत आगमन से मीलों पहले ही एक गाने में भीड़ के साथ खड़े ऑडियो सीडी का विमोचन करते दिखाई दें, यह अनायास नहीं हो सकता। ‘रॉकस्टार’ यह तय ही नहीं कर पायी है कि उसे क्या होना है। वह एक कलाकार का आत्मसाक्षात्कार है, लेकिन बाहर इतना शोर है कि आवाज कभी रूह तक पहुंच ही नहीं पाती। वह एक साथ एक कलाकृति और एक सफल बॉलीवुड फिल्म होने की चाह करती है और दोनों जहां से जाती है।
ऐसा नहीं है कि फिल्म में ईमानदारी नहीं दिखाई देती। कैंटीन वाले खटाना भाई के रोल में कुमुद मिश्रा ने जैसे एक पूरे समय को जीवित कर दिया है। जब वो इंटरव्यू के लिए कैमरे के सामने खड़े होते हैं, तो उस मासूमियत की याद दिलाते हैं, जिसे हम अपने बीए पास के दिनों में जिया करते थे और वहीं अपने कॉलेज की कैंटीन में छोड़ आये हैं। अदिति राव हैदरी कहानी में आती हैं और ठीक वहीं लगता है कि इस बिखरी हुई, असंबद्ध कोलाजनुमा कहानी को एक सही पटरी मिल गयी है। लेकिन अफसोस कि वो सिर्फ हाशिये पर खड़ी एक अदाकारा है, और जिसे इस कहानी की मुख्य नायिका के तौर चुना गया है, उन्हें जितनी बार देखिए यह अफसोस बढ़ता ही जाता है।
ढाई-ढाई इंच लंबे तीन संवादों के सहारे लव आजकल की ‘हरलीन कौर’ फिल्म किसी तरह निकाल ले गयी थीं, लेकिन फिल्म की मुख्य नायिका के तौर गैर हिंदीभाषी नर्गिस फाखरी का चयन ऐसा फैसला है, जो इम्तियाज पर बूमरैंग हो गया है। शायद उन्होंने अपनी खोज ‘हरलीन कौर’ को मुख्य भूमिका में लेकर बनी ‘आलवेज कभी कभी’ का हश्र नहीं देखा। फिर ऊपर से उनकी डबिंग इतनी लाउड है कि फिल्म जिस एकांत और शांति की तलाश में है, वो उसे कभी नहीं मिल पाती। बेशक उनके मुकाबले रणबीर मीलों आगे हैं लेकिन फिर अचानक आता, अचानक जाता उनका हरियाणवी अंदाज खटकता है। फिर भी, ऐसे कितने ही दृश्य हैं फिल्म में, जहां उनका भोलापन और ईमानदारी उनके चेहरे से छलकते हैं। ठीक उस पल जहां जनार्दन हीर को बताता है कि उसने कभी दारू नहीं पी और दोस्तों के सामने बस वो दिखाने के लिए अपने मुंह और कपड़ों पर लगाकर चला जाता है, ठीक वहीं रणबीर के भीतर बैठा बच्चा फिल्म को कुछ और ऊपर उठा देता है। ‘वेक अप सिड’ और ‘रॉकेट सिंह’ के बाद यह एक और मोती है जिसे समुद्र मंथन से बहुत सारे विषवमन के बीच रनबीर अपने लिए सलामत निकाल लाये हैं।
फिल्म के कुछ सबसे खूबसूरत हिस्से इम्तियाज ने नहीं बल्कि एआर रहमान, मोहित चौहान और इरशाद कामिल ने रचे हैं। तुलसी के मानस की तरह जहां चार चौपाइयों की आभा को समेटता पीछे-पीछे आप में संपूर्ण एक दोहा चला आता है, यहां रहमान के रूहानी संगीत में इरशाद की लिखी मानस के हंस सी चौपाइयां आती हैं।
‘कुन फाया कुन’ में…
“सजरा सवेरा मेरे तन बरसे, कजरा अंधेरा तेरी जलती लौ,
क़तरा मिला जो तेरे दर बरसे … ओ मौला।”
‘नादान परिंदे’ में…
“कागा रे कागा रे, मोरी इतनी अरज तोसे, चुन चुन खाइयो मांस,
खाइयो न तू नैना मोरे, खाइयो न तू नैना मोरे, पिया के मिलन की आस।”
यही वो क्षण हैं, जहां रणबीर सीधे मुझसे संवाद स्थापित करते हैं, यही वो क्षण हैं, जहां फिल्म जादुई होती है। लेकिन कोई फिल्म सिर्फ गानों के दम पर खड़ी नहीं रह सकती। अचानक लगता है कि मेरे पसंदीदा निर्देशक ने अपनी सबसे बड़ी नेमत खो दी है और जैसे उनके संवादों का जावेद अख्तरीकरण हो गया है। और इस ‘प्रेम कहानी’ में से प्रेम जाने कब उड़ जाता है, पता ही नहीं चलता।
सच कहूं, इम्तियाज की सारी गलतियां माफ होतीं, अगर वे अपने सिनेमा की सबसे बड़ी खासियत को बचा पाये होते। मेरी नजर में इम्तियाज की फिल्में उसके महिला किरदारों की वजह से बड़ी फिल्में बनती हैं। नायिकाएं जिनकी अपनी सोच है, अपनी मर्जी और अपनी गलतियां। और गलतियां हैं, तो उन पर अफसोस नहीं है। उन्हें लेकर ‘जिंदगी भर जलने’ वाला भाव नहीं है, और एक पल को ‘जब वी मेट’ में वो दिखता भी है, तो उस विचार का वाहियातपना फिल्म खुद बखूबी स्थापित करती है। उनकी प्रेम कहानियां देखकर मैं कहता था कि देखो, यह है समकालीन प्यार। जैसी लड़कियां मैं अपने दोस्तों में पाता हूं। हां, वे दोस्त पहले हैं लड़कियां बाद में, और प्रेमिकाएं तो उसके भी कहीं बाद। और यही वो बिंदु था, जहां इम्तियाज अपने समकालीनों से मीलों आगे निकल जाते थे। लेकिन रॉकस्टार के पास न कोई अदिति है न मीरा। कोई ऐसी लड़की नहीं, जिसके पास उसकी अपनी आवाज हो, अपने बोल हों… और यहां बात केवल तकनीकी नहीं, किरदार की है।
इम्तियाज की फिल्मों ने हमें ऐसी नायिकाएं दी हैं, जो सच्चे प्रेम के लिए सिर्फ नायक पर निर्भर नहीं हैं। किसी भी और स्वतंत्र किरदार की तरह उनकी अपनी स्वतंत्र जिंदगियां हैं, जिन्हें नायक के न मिलने पर बरबाद नहीं हो जाना है। बेशक इन दुनियाओं में हमारे हमेशा कुछ कमअक्ल नायक आते हैं और प्रेम कहानियां पूरी होती हैं, लेकिन फिल्म कभी दावे से यह नहीं कहती कि अगर यह नायक न आया होता, तो इस नायिका की जिंदगी अधूरी थी। इम्तियाज ने नायिकाओं को सिर्फ नायक के लिए आलंबन और उद्दीपन होने से बचाया और उन्हें खुद आगे बढ़कर अपनी दुनिया बनाने की, गलतियां करने की इजाजत दी। इस संदर्भ को ध्यान रखते हुए ‘रॉकस्टार’ में एक ऐसी नायिका को देखना जिसका जीवन सिर्फ हमारे नायक के इर्द गिर्द संचालित होने लगे, निराश करता है। और जैसे जैसे फिल्म अपने अंत की ओर बढ़ती है, नायिका अपना समूचा व्यक्तित्व खोती चली जाती है, मेरी निराशा बढ़ती चली जाती है।
मैंने इम्तियाज की फिल्मों में हमेशा ऐसी लड़कियों को पाया है, जिनकी जिंदगी ‘सच्चे प्यार’ के इंतजार में तमाम नहीं होती। वे सदा सक्रिय अपनी पेशेवर जिंदगियां जीती हैं। कभी दुखी हैं, लेकिन हारी नहीं हैं और ज्यादा महत्वपूर्ण ये कि अपनी लड़ाई फिर से लड़ने के लिए किसी नायक का इंतजार नहीं करतीं।
और हां, पहला मौका मिलते ही भाग जाती हैं।
मैं खुश होता, अगर इस फिल्म में भी नायिका ऐसा ही करती। तब यह फिल्म सच्चे अर्थों में उस रास्ते जाती जिस रास्ते को इम्तियाज की पूर्ववर्ती फिल्मों ने बड़े करीने से बनाया है।
(मिहिर पंड्या। दिल्ली विश्वविद्यालय में रिसर्च फेलो। हिंदी सिनेमा में शहर दिल्ली की बदलती संरचना पर एमफिल। आवारा हूं नाम से मशहूर ब्लॉग। उनसे miyaamihir@gmail.com पर संपर्क करें।)
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