देश के बड़े उद्योगपतियों की ही जमात का था वो, कंप्यूटर बेचकर और प्रोग्राम बनाकर रूपया ऐसे समय में कमाया था जब लोग क कंप्यूटर का नहीं जानते थे, आज एक बड़े साम्राज्य का मालिक अकूत संपदा और धन दौलत का दावेदार था वो. बड़ी कमाई पर बड़ा टेक्स भी देना लाजिमी था, पर एक गरीब देश में जैसे टेक्स बचाने की कई सारी गलियाँ थी एक समाजसेवा की दूकान खोलने से टेक्स की बचत ही नहीं की जा सकती थी वरन समाज में पुण्य भी कमाया जा सकता था, बॉस के दिमाग में यह आईडिया जम गया कुछ रिटायर्ड प्रशासनिक अधिकारियों को और कुछ अनुभवी लोगो को रखकर एक दूकान खोल ली और लगभग आठ सो नो सो करोड रूपया लगा दिया अपनी ही दूकान में. "शिक्षा" साली वो घटिया नाली जिसमे सब बह जाता है, बस इसी नाली को खोदने का ठेका ले लिया अलग अलग राज्यों में, हर जगह अच्छे कारीगर मिल गए जो पहले से इस तरह के कुत्सित प्रयासों के जानकार और विद्वजन थे, ये वो लोग थे जो ज़िंदगी भर कुकर्म करके भी रूपये की भूख मिटा नहीं पाए थे और अब बढती महंगाई में अपने सपने पुरे करना चाहते थे, लाल रंग की चुनरिया ओढ़े ये लोग इस उद्योगपति के घराने में शामिल हो गए और घराने की दूकान तमाम कुकर्मियो के लिए खुल गयी, नवाचार से लेकर व्याभिचार में लिप्त ये कुकर्मी लोग अब इस दूकान के घोषित ब्रांड एम्बेसेडर है, सारे निष्कासित, भ्रष्ट और अव्वल दर्जे के धूर्त आजकल इसी दूकान के ऐसी कमरों में बैठकर नाटक कला से लेकर शिक्षा और प्रयोगो की धज्जिया उड़ाते रहते है और वो उद्योगपति बैठकर ताकता रहता है कि चलो शिक्षा की नाली के बहाने ही सही, कभी तो लोग इस देश में कुछ सीखेंगे......खुश है नवाचारी और धकेले गए लोग कि लाख रूपया पा रहे है हर माह और उनकी दुकाने भी चल रही है उनके पीछे खुश है युवा समाजसेवी कि एक दिन वे भी ऐसे ही एक घराना खोल देंगे और देश के बहाने अपना टेक्स बचायेंगे.(एनजी ओ पुराण 112)
आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत...
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