आज शाम को एकांत श्रीवास्तव के कार्यक्रम के बहाने से पूरी देवासी चौकड़ी मिली इसी देवास शहर में घूमते-घामते कुछ काम किये और फ़िर ड़ा प्रकाश कान्त के घर जा पहुंचे ढली शाम और कुडकुडाती हुई ठण्ड में .......ताई के हाथो की चाय पीने, ढेर सारा नमकीन खाना जैसे पुराने कई जन्मो का कर्ज हो और ड़ा कान्त यानी हमारे अन्ना से ढेर सारी गपशप.....मेरी और मनीष वैद्य की तो खिचाई हो ही जाती है, जब जाते है तब क्योकि हम दोनों नालायक लिखते पढते नहीं है और हमारे पास राजेन्द्र यादव से ज्यादा ना लिखने के कारण है..........अब क्या कहे अन्ना शब्द जैसे तारे हो गए और जमीन पे आते ही नहीं.......कोई आमीर ही हमें जमीन पे खींच ला सकता है ...खैर आज तो हिट हो गयी किसी बहाने से मैंने और बहादुर ने जबरजस्ती की और अन्ना की पोटली से दो किताबे निकलवा ली....."शहर की आख़िरी चिड़िया" और हाल ही में नयीकिताब से प्रकाशित किताब "टोकनी भर दुनिया" और आज किस्मत ही थी इस भले आदमी ने हमें अपने हस्ताक्षर करके किताबे दी और तस्वीर भी खिचवाई है अपने साथ.....अमेय शायद यहाँ डाल दे उपकृत रहूंगा. ड़ा प्रकाश कान्त हिन्दी कहानी और साहित्य में एक बड़ा नाम है और उनका घर हम जैसे लोगो के लिए एक स्वर्ग ही है जहां किताबों का संसार है. सफदर की कविता शायद ऐसे ही किसी माहौल को देखकर जन्मी होगी....हाँ अखबार किताबे और पत्रिकाएं इतने संवरे रूप में तो अपने प्रेस में भी ना रहती होंगी यहाँ आकर वो इठला जाती है करीने से सजी किताबें और ऊपर से साहित्य का सच्चा प्रकांड पुजारी....जब जाओ कभी शिकन नहीं और हर बार एक नई ऊर्जा और प्रेरणा लेकर लौटता मै ....पर अभी भी नालायक तो हूँ ही क्योकि प्रिंट मीडिया में काम नहीं है ना मेरा और अन्ना, बहादुर सब इसी से नाराज है....पर करूँगा ऐसा करूँगा कि सब देखते रह जायेंगे.............बस थोड़ी सी मोहलत और............एक जतन और अभी, एक जतन और...................................
आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत
Comments
Yogendra
Mankund
Yogendra
Village: Mankund