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उस टेलर की तलाश आज भी है, जिसने कांचा के कपड़े सिले थे

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♦ रवीश कुमार

भोर होने में कुछ घंटे बाक़ी रहे होंगे। दरवाजे की सांकल को चुपचाप लगाकर निकल गया था। गांधी मैदान की तरफ पैदल ही। फर्स्ट डे फर्स्ट शो देखने का जुनून टीवी और मल्टीप्लेक्स के आने के पहले सिनेमा संस्कृति का हिस्सा रहा है। टिकट खिड़की पर कतार में खड़ी भीड़ के कंधे के ऊपर से चलते हुए काउंटर तक पहुंच जाने वाले भले ही लफंगे कहे जाएं, मगर उनका यह करतब मुझे सचिन तेंदुलकर के छक्के जैसा अचंभित कर देता था। पर्दे तक पहुंचने के पहले ऐसे हीरो से मुलाकात न हो, तो सिनेमा देखने का मजा नहीं मिलता।

तय हुआ कि पहले दिन और पहले ही शो में देखेंगे वर्ना अग्निपथ नहीं देखेंगे। पैसा दोस्तों का था और पसीना मेरा बहने वाला था। जल्दी पहुंचने से काउंटर के करीब तो आ गया, मगर काउंटर के उस्तादों के आते ही मुझे धकेल कर कोई अस्सी नब्बे लोगों के बाद पहुंचा दिया गया। लाइन लहरों की तरह डोल रही थी। टूट रही थी। बन रही थी। लाइन बहुत दूर आ गयी थी। लोग धक्का देते और कुछ लोग निकल जाते। नये लोग जुड़ जाते। यह क्रम चल रहा था। तभी पुलिस की पार्टी आयी और लाठी भांजने लगी। तीन-चार लाठी तबीयत से जब पैरों और चूतड़ पर तर हुई, तो दिमाग गनगना गया। तब तो गोलियां खाते हुए अग्निपथ अग्निपथ बोलते हुए प्रोमो भी नसीब नहीं था वर्ना वही याद कर बच्चन मुद्रा में खुद के इस त्याग को महिमामंडित करते हुए लाइन में बने रहते।




खैर… चप्पल ने पांव का साथ छोड़ दिया। हम नीचे से नंगे हो चुके थे। टिकट लेने के बाद होश ठीक से उड़ा कि इस हालत में घर गया, तो वहां भी लाठी तय थी। किसी ने चप्पल का इंतजाम किया और पहले शो की तैयारी से हम फिर सिनेमा हाल के करीब पहुंच गये। मोना या रिजेंट में लगी थी अग्निपथ।


यह वही साल था, जब मुझे दिल्ली शहर के बारे में भारत की राजधानी से ज्यादा कुछ पता नहीं था। अग्निपथ देख चुके थे और अब बंद हो चुकी इलेवन अप से, जिसे दिल्ली एक्सप्रेस कहा जाता था, दिल्ली के लिए रवाना हो चुके थे। इन दोनों के बीच कुछ हफ्तों या महीनों का अंतराल जरूर रहा होगा।

[लिखते वक्त स्मृतियां ऐसे ही घालमेल हो जाती हैं...]

मगर विजय दीनानाथ चौहान, बाप का नाम मास्टर दीना नाथ चौहान… ऐसे संवाद दून स्कूल से पास होकर स्टीफंस पहुंचने वाले नौजवानों को लुभाते होंगे, मगर वो इसे जी नहीं पाते होंगे। इस बात का सुकून तो था ही कि अग्निपथ देख चुके थे। उस टेलर की तलाश आज तक करता हूं, जिसने कांचा के इतने अच्छे कपड़े सिले थे। अपने बाप के हत्यारे कांचा को मारने का जुनून लिये विजय दीनानाथ चौहान भी तो हत्यारे के दर्जी को ढूंढ रहा था। खैर…

इसीलिए कहता हूं कि अग्निपथ एक ऐसी फिल्म है, जिसमें मैं भी हूं। मुकुल एस आनंद की अग्निपथ में भी मैं था और करण जौहर द्वारा निर्मित और करण मल्होत्रा द्वारा निर्देशित अग्निपथ में भी मेरा रोल बचा रहा। दो फिल्मों के बीच का यह दर्शक दो दशकों की जिंदगी जी चुका है।

गाजियाबाद के स्टार एक्स सिनेमा हाल में पहुंचने से पहले बदनाम हिंदी चैनलों की बारात का वो बाराती बन चुका था, जिसे कुछ लोग शरीफ समझते हैं। नाचना भले न आये मगर नगीनिया डांस की तड़प हमेशा रही है। अमर उजाला के एक पत्रकार से बाहर मुलाकात हुई। मैंने उनको यह कह कर रवाना कर दिया कि मैं अकेले रहना पसंद करता हूं। वो निराश हो कर चले गये कि सर कहने पर झड़प देने वाला यह मशहूर पत्रकार बदतमीज भी है। उन्हें नहीं मालूम था कि यह पत्रकार खुद अपनी प्रेरणाओं को नहीं समझ पाया इसलिए दूसरे जब इसे प्रेरणा बनाते हैं, तो चिढ़ जाता है।

बीस रुपये का पान बनवाया। तीन सौ रुपये के दस ग्राम वाले किमाम का एक छोटा सा हिस्सा पान के पत्ते पर घिसवा कर दबाया और स्टार एक्स सिनेमा के भीतर। कुछ लोग पहचान रहे थे। कुछ हैरान कि भर मुंह पान दबाये ये फटीचर है या एंकर है। हॉल में पहुंचा तो दो बजे के शो के लिए, लेकिन हाथ में टिकट था एक बजे के शो का। सिनेमा हाल का मैनेजर दिलफेंक सिनेमची समझता है, इसलिए उसने एक मेहरबानी की। सलाम किया और उसी नंबर के टिकट पर दो बजे के हाल में सीट दिला गया। अब शुरू होने वाला था अग्निपथ। इस बार प्रोमो तो बने थे पर टीवी नहीं देखने के कारण एक भी नहीं देख पाया। लाठी नहीं चली और दोस्त नहीं थे। तब दर्जन भर थे, अब अकेला। लेकिन फेसबुक और ट्वीटर के अपने मानस मित्रों की फौज को बताने की बेताबी जरूर थी। ढैन ढैन ढैन… अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ।

एक सुपुरुष घोती कुर्ताधारी मास्टरनुमा हंसमुख कवि। देखते ही पिता की याद आ गयी। धोती-कुर्ता में वो भी काफी जंचते थे। आंखें थोड़ी देर के लिए नम तो हुईं, मगर मास्टर दीनानाथ चौहान के चेहरे पर अभिनय की कशिश उतरते देखी, तो लगा कि मामला जंचेगा। कैमरा कमाल तरीके से काम कर रहा था। मांडवा। बच्चन की जुबान पर जब मांडवा उच्चरित होता था, तो लगता था कि भारत छोड़ो, मांडवा में ही बसो। अपने गांव के बाद मांडवा का ही नाम लेने में मजा आता था। लगता था काश मांडवा में पैदा हुए होते। करण मल्होत्रा ने मांडवा को तो रखा मगर उसे पहचान की पटरी से उतार दिया। वो सिर्फ मुंबई के नक्शे के बाहर का गांव है, जहां पुलिस मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के डर से नहीं पहुच पाती। खुद भी नहीं जाती और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को भी जाने के लिए नहीं कहती कि जाकर देखो मांडवा में क्या हो रहा है। खैर…

हिंदी सिनेमा को सिनेमा की तरह नहीं देखना चाहते, तो दुनिया में बहुत अच्छे विश्वविद्यालय हैं जहां आप जाकर गंभीर पढ़ाई कर सकते हैं।

जल्दी समझ में आने लगा कि संजय दत्त ने फिल्म को लूट लिया है। फिर लगा कि कुछ माल ऋषि कपूर भी लूट रहे हैं। खलनायक में जोकर लगने वाले संजय दत्त इस अग्निपथ में वाकई खलनायक लगे हैं। बीस सालों में हमारे पर्दे का खलनायक हीरो की तरह कमनीय हो चला था। अमरीश पुरी की भयावह खलनायकी के बाद संजय दत्त ने उस क्रूरता को उभारा है। वांडेट का खलनायक नहीं भूलिएगा। खैर। मास्टर के मारने का दृश्य कमाल का है। समंदर के किनारे की हत्यारी शामें शायद ऐसी ही होती होंगी। बारिश और नीली काली लाइटिंग के बीच मशाल की पीली रोशनी उस क्रूरता को खूबसूरती से रचती है, जिसे लेकर फिल्म आगे चलने वाली थी। मांडवा से मुंबई आते ही रऊफ लाला का किरदार। मक्कारी से लबरेज ऋषि कपूर ने मकबूल के पंकज कपूर के अभिनय के करीब खुद को ला खड़ा कर दिया। आज के जमाने में जब कसाई भी सूट पैंट वाले हो गये हैं और विधायकी का चुनाव लड़कर पसमांदा मुस्लिम के हकों की लड़ाई में शामिल हैं, गनीमत है कि मुस्लिम पात्र का यह चित्रण सांप्रदायिक दौर की मुंबई की पैदाइश नहीं लगता। कहानी कमजोर होती हुई अपने किरदारों से मजबूत होने लगती है। विजय दीनानाथ चौहान बड़ा हो जाता है। पंद्रह साल गुजरने का एलान होता है। माधवी बनी नर्स की जगह प्रियंका चोपड़ा ब्यूटी पार्लर वाली काली के रूप में जगह ले चुकी होती है।

पहली अग्निपथ में अमिताभ बच्चन का नायकत्व छाया रहता है। वो अपने परिचय वाले संवाद को दोहराते-दोहराते थकाते भी रहे और पकाते भी रहे। करण मल्होत्रा की अग्निपथ में विजय दीनानाथ आधी से ज्यादा फिल्म में बीजू बन कर ही रहता है। वो मौत के साथ अपीटमेंट जैसी कामचलाऊ इंग्लिश की कोशिश नहीं करता। औरतों से भरे मोहल्ले में रहता है। औरतें उसकी ढाल हैं। मुकुल आनंद की फिल्म में कृष्णन अय्यर बाडीगार्ड था। करण मल्होत्रा की फिल्म में सीढ़ियों, बालकनियों और बरामदे में नजर आने वाली असंख्य औरते बीजू की बाडीगार्ड हैं। रोहिणी हट्टंगड़ी और विजय के बीच गहरा रिश्ता बना रहता है। यहां जरीना वहाब पूरी फिल्म में टेंपोरेरी यानी अस्थायी मां लगती है। इन्हीं सब बिंदुओं पर फिल्म टूटती है। मगर शानदार बने रहने का रास्ता नहीं छो़ड़ती।

नयी अग्निपथ में हृतिक रौशन मांडवा पहुंचने से पहले तक मोहल्ले का बागी से ज्यादा नहीं लगता। उसके गुस्से की थरथराहट कंपकंपाहट पैदा करती है, लेकिन जब वो कमिश्नर के घर पहुंच कर जान बचाने की बात करता है, तो डॉन की जगह मुखबिर नजर आने लगता है। मुकुल आनंद की फिल्म में कमिश्नर और विजय दीनानाथ के बीच का रिश्ता गजब का था। इस फिल्म में पड़ोसी का लगता है। इसीलिए हृतिक नायकत्व की उस ऊंचाई को नहीं छू पाते, जिसे बच्चन ने छुआ। पहली अग्निपथ में बच्चन नायक थे, मगर इस अग्निपथ में फिल्म नायक है। उस फिल्म में वृत्तांत बच्चन तय करते हैं, इस फिल्म में वृत्तांत यानी नैरेटिव निर्देशक अपने पात्रों के जरिये तय करता है। पहली फिल्म में विजय दीनानाथ बनने से पहले अमिताभ एंग्री यंग मैन की छवि को कई दशक जी चुके होते हैं। इस फिल्म में विजय बनने से पहले तक हृतिक चौकलेटी हीरो की छवि की तलाश में मुख्य से लेकर सहयोगी किरदार में भटकते रहे हैं। मगर आखिरी सीन में मांडवा पहुंचने के बाद हृतिक का अभिनय उन्हें एक नयी ऊंचाई पर ले जाता है।

मैं कागज के फूल का रिव्यू नहीं लिख रहा, उस फिल्म का लिख रहा हूं जो चलती भी है और बनती भी है।

इस फिल्म में गाने यादगार नहीं हैं। चिकनी चमेली टपकी हुई लगती है। दोस्त होते नहीं सब हाथ मिलाने वाले… इस कव्वाली के सेट पर जब कांचा और विजय दीनानाथ मिलते हैं, तो गजब का समां बंधता है। डैनी का जोरदार अभिनय और बच्चन का स्टारडम एक किस्म की बराबरी का टक्कर पैदा करता है। वो हेलिकाप्टर से मांडवा में लैंड करता है। यहां नाव से हृतिक बाबू जाते हैं। शॉट्स काफी अच्छे हैं। क्लोज अप शानदार हैं। कांचा भयावह है। गीता का पुनर्पाठ कर रहा है। उम्मीद है कि कोई गीता के इस पुनर्पाठ को लेकर रूस की अदालत नहीं जाएगा। खैर…

कांचा जब मांडवा में बैठ कर न्यूज चैनलों के जरिये लाइव रिपोर्ट देख सकता है, तो फिल्म में सिक्के डालने वाले पब्लिक फोन रखने का क्या मतलब था, समझा नहीं।

लेकिन गानों, हांडी फोड़ने के दृश्य विहंगम तरीके से रचे गये हैं। कव्वाली को बेजो़ड़ फिल्माया गया है। रऊफ लाला के बेटे को मारने का प्लाट शानदार है। और बीजू की बहन की नीलामी का दृश्य छाती तोड़ देने वाला। यह वही सीन है, जब हृतिक पूरे तरीके से हीरो की तरह उभर कर फिल्म पर कब्जा करते हैं। ठीक इसके बाद चौपाटी पर सूर्या को मारने का सीन शानदार है। यही वो सीन है, जहां बीजू पहली बार अपना और अपने बाप के नाम वाला पूरा संवाद बोलता है। विजय दीनानाथ चौहान। बाप का नाम मास्टर दीनानाथ चौहान।

करण मल्होत्रा ने पुरानी फिल्म से यह सबक सीख लिया था। इसीलिए इस संवाद के लिए वो दर्शकों को इंतजार करवाते हैं। कुछ संवाद तो बेहतरीन लिखे गये हैं। प्रबुद्ध खिलाड़ी। हा हा। मजा आ गया। कांचा का कहना कि अब भी माया मोह बाकी है। यह संवाद मांडवा की लड़ाई को फिल्मी कुरुक्षेत्र में बदल देता है। बिना माया मोह को त्यागे कोई खलनायक नहीं बन सकता। कोई नायक भी नहीं बन सकता। जब इसी झमेले से हृतिक निकलते हैं, तो आखिरी सीन में उनका स्टंट छाप अभिनय बेजोड़ हो जाता है। संजय दत्त मोटे थुलथुल बचे खुचे खलनायक की तरह पेड़ पर लटका दिये जाते हैं। शायद यह निर्देशक की योजना होगी कि नायक को शुरू से नायक बनाकर नहीं रखना है। उसे बाद में स्थापित करना है।

इस फिल्म की रौशनी, संगीत, कविता के पाठ और पुनर्पाठ के दृश्य बेहतरीन हैं। मांडवा को उड़ाने का दृश्य हो या गणपति के विसर्जन या फिर हांडी फोड़ने का। रंगों को लेकर निर्देशक का फन नजर आता है। गाना ही इसकी कमजोरी है। किसको था खबर, किसको था पता, वी आर मेड फार इच अदर … दोस्त होते नहीं सब हाथ मिलाने वाले … चिकनी चमेली दारू के ठेके पर आबाद तो हो जाएगी, मगर अग्निपथ की आत्मा नहीं कहलाएगी।

फिल्म की समीक्षा नहीं की है मैंने। मुझे यह फिल्म शानदार लगी। एक ऐसे वक्त में जब सिनेमा हाल खाली हों और बोरियत भरी सर्दी अपना रजाई समेट रही हो, यह फिल्म कमा ले जाएगी। बस एक कमी को पूरी कर देती, तो कमाल हो जाता। जज्बातों को झकझोरने वाले संवादों और दृश्यों की कमी रह गयी। भावुकता से भरपूर सिनेमा न भी हो, तो चलेगा मगर भावुकता ही न हो, यह नहीं हो सकता। हम हिंदी सिनेमा देख रहे हैं। कुरोसावा की फिल्म नहीं, जिनकी एक भी फिल्म मैंने नहीं देखी है। प्रियंका चोपड़ा ने काफी अच्छा अभिनय किया है, मगर उसकी कोई कहानी नहीं है। कंबल फेंक कर गोली मारने के दृश्य में मारी जाती है। ऐसे दृश्य कई फिल्मों में आ चुके हैं। आप देखिएगा कि कैसे यह फिल्म अपनी ही पुरानी कथा का शानदार पुनर्पाठ करती है। बहुत चीजें बदल देती हैं। बहुत चीजें जोड़ देती है और एक अवसर बना जाती है कि एक तीसरी अग्निपथ जरूर बनेगी। उम्मीद है मेरे बिना नहीं बनेगी। अग्निपथ… अग्निपथ… अग्निपथ।

ravish kumar(रवीश कुमार। टीवी का एक सजग चेहरा। एनडीटीवी इंडिया के कार्यकारी संपादक। नामी ब्‍लॉगर। कस्‍बा नाम से मशहूर ब्‍लॉग। दैनिक हिंदुस्‍तान में ब्‍लॉगिंग पर एक साप्‍ताहिक कॉलम लिखते थे, अब नहीं लिखते हैं। इतिहास के छात्र रहे। कविताएं और कहानियां भी लिखते हैं। उनसे ravish@ndtv.com पर संपर्क किया जा सकता है।)

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