यहाँ लड़ाइयां सिर्फ इसलिए लड़ी जाती थी कि अपना झंडा ऊँचा रखना है और समाज में मर्द साबित करना है अपने आप को छोटे मोटे टुच्चे चाटुकार किस्म के लोग और अखाड़े की मिट्टी से बदन की चर्बी को मजबूत बनाए दो चार लोंढे लपाड़े शहर के दादा कहते थे, शहर की गल्ला मंडियों में किसानो से लूटकर अनाज के दाने बेचकर स्कूल चलाने वाले और मंदिरों के चंदे से कोठिया बनवाने वाले नगर सेठ हो जाते थे और यही लोग घासलेट बेचकर माँ वैष्णो देवी के दरबार में लंगर चलवाते थे सवाल दान पुण्य का नहीं पर नीयत का था हर बात के पीछे गहरी राजनीति और गहरी चाल, शिकस्त देने में माहिर और कस्बे से राजधानी तक रोज फोन पर घंटो बतियाने की कला में निपुण ये लोग बहुत कारीगर थे इनमे ही एक उपजा था समाजसेवी और फ़िर उसने इसी कस्बे में समाजवाद और लाल रंग के सूरज की कपोल कल्पना की थी अपने साथ बनाई एक टीम जो आपस में परेशान और दुनिया जहां से सताई हुई.....बस इन्ही के भरोसे मशाले जल रही थी और फ़िर एक दिन.... ( "कपोल कस्बे की कथा" लिखी जा रही एक श्रृंखला का अंश)
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