वर दे , वीणावादिनि वर दे ! प्रिय स्वतंत्र-रव अमृत-मंत्र नव भारत में भर दे ! काट अंध-उर के बंधन-स्तर बहा जननि, ज्योतिर्मय निर्झर; कलुष-भेद-तम हर प्रकाश भर जगमग जग कर दे ! नव गति, नव लय, ताल-छंद नव नवल कंठ, नव जलद-मन्द्ररव; नव नभ के नव विहग-वृंद को नव पर, नव स्वर दे ! वर दे, वीणावादिनि वर दे। भारति, जय, विजयकरे कनक-शस्य कमलधरे लंका पदतल शतदल गर्जिर्तोर्मि सागर-जल धोता शुचि-चरण युगल स्तव कर बहु अर्थ भरे तरु-तृण-वण-लता वसन , अंचल में खचित सुमन गंगा ज्योतिर्जल-कण , धवल -धार हार गले मुकुट शुभ्र हिम-तुषार, प्राण प्रणव ओंकार ध्वनित दिशायें उदार , शतमुख-शतरव मुखरे शमशेर की एक कविता उनके लिए-- भूलकर जब राह – जब – जब राह.. भटका मैं तुम्हीं झलके, हे महाकवि, सघन तम की आँख बन मेरे लिए, अकल क्रोधित प्रकृति का विश्वास बन मेरे लिए- जगत के उन्माद का परिचय लिए,- और आगत-प्राण का संचय लिए, झलके प्रमन तुम, हे महाकवि ! सहजतम लघु एक जीवन में अखिल का परिणय लिए- प्राणमय संचार करते शक्ति औ छबि के मिलन का हास मंगलमय; मधुर आठों याम विसुध खुलते कंठस्वर में तुम्हारे, कवि, एक ऋतुओं के विहंसत...