सात नाकारा और निकम्मे एक कॉमेडी सर्कस में काम कर रहे है दो साल से ......कोई है जो इन्हें खरीद ले ...........ये सब देंगे प्रतिबद्धता, लगन, इमानदारी, मेहनत और आउटपुट.............असल में कहना यह चाहिए कि ३६ थे धीरे धीरे सब भाग गये जब जैसा मौका मिला..........हुआ यूँ था कि गिरगिट के झुण्ड में, लोमड़ियों के बीच ये ३६ जीजिविषा को लेकर जूझते रहे फ़िर जब लगा कि दाना पानी बसर नहीं हो रहा तो निकल लिए और सबसे मजेदार था कि वो लोमड़ी पहले भाग खडी हुई जो बहेलिया बनकर ले आई थी इस निकम्मों को इस मक्तल में ज़िंदा मारने के लिए.......लोमड़ी आजकल नरसंहार के हीरो के बीच नए शिकार कर रही है और नए गिरगिट ने जगह ले ली है जो खूब चिकनी चुपड़ी बातें कर सबका मन हर लेता है........जंगल में यह शिकारी अब अकेला है और यह चुन चुन कर रोज एक एक जानवर मारता है............
आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत...
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