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नर्मदा के किनारे से बेचैनी की कथा I

एक रात है और एक लंबी ट्रेन है जो काली रात में घनघोर पानी की तेज बूंदों के बीच नागिन सी सरसराती जा रही है, खूब लंबी ट्रेन है, यात्री बेसुध सो रहे है और बाहर पानी तेज हो रहा है अचानक घाट पर सिग्नल ना मिलने के कारण घाट पर यह नागिन रुक जाती है और दूर कही सदियों से ना सोया यात्री यंत्रवत सा उठता है और अपना सामान लेकर उतर जाता है... बगैर यह जाने कि उसके सामान  में कई दीगर महत्वपूर्ण सामान के साथ उसकी जान से प्यारा लेप टॉप भी है, एक अदद मोबाईल जिसमे उसके दोस्तों परिजनों के नंबर और फ़िर अपनी ज़िंदगी का पूरा बोझ... बस उतर जाता है यह यात्री और चलने लगता है बेसुध लगभग नींद में चलने के माफिक .....लोग चिल्ला रहे है पर जाने वाले कभी सुनते है किसी की ??? बस चल दिया पूरी नर्मदा की घाटी को पार करके वो सतपुडा से विन्ध्याचल की जमीन पर आ गया जब शहर की चकाचौंध में पहुंचा तो खम्बों की रोशनी में तेज बूंदें देखी, बस अपने घर (जिसे वो घर कहता था) जो सिर्फ चार दीवारों से बना था और कुछ जरूरी सामान थे जीवन जीने के या यूँ कहे कि जीवन को मारने के..........तमाम संसाधन ........रात गहरा रही थी तसल्ली यह थी कि वो लौट आया है एक लंबी यात्रा से दुःख देने वाले जीवन से... किसके लिए यह तो नहीं पता पर लौटना सच में लौटना होता है क्या? (नर्मदा के किनारे से बेचैनी की कथा)

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