ये एक लगभग खाली बस थी जो नर्मदा के किनारे बसे शहर से राजधानी जा रही थी. वो लगभग पचपन साल का आदमी होगा, शरीर पर एक खादी की बंडी, नीचे पीले रंग का धोतीनुमा कपड़ा लपेटे, पाँव में दो अलग अलग स्लीपर और बाल बेतरतीब से बढे हुए, ललाट पर लंबा सा चन्दन और आँखों में कही खालीपन था. जैसे ही उसके पास जाकर बैठा तो पूछने लगा रेलवे का ड्राईवर तो दो लाख कमा लेता है हर माह, पर ये वकील को कितनी तनख्वाह मिलती है........मैंने कहा कि नहीं अगर नौकरी करे तो तनख्वाह मिलेगी नहीं तो खुद की प्रेक्टिस करते है....फ़िर बोला तो फ़िर हलवाई को डेढ़ दो लाख मिलते होंगे, मैंने कहा नहीं उन्हें तो रोज के हिसाब से मजदूरी मिलती है अगर बड़े होटल में हो तो बात अलग है....हैरान था फ़िर बोला तो डाक्टर को भी मजदूरी मिलती है या वे धंधा खोल लेते है..........और बेचारे नाई की तनख्वाह कितनी कम है, सुतारों को छठा वेतनमान अभी तक नहीं मिला, लुहार साले केन्द्र के बराबर महंगाई भत्ता उठा रहे है......इतनी गैर बराबरी क्यों है तुम्हारे इस देश में, मै परेशान हो गया ससुरा रेडियो मिर्ची नहीं सुनने दे रहा मैंने कहा बाबा दिक्कत क्या है चुप बैठो नहीं तो यहाँ से उठ जाओ.......थोड़ी देर बाद मुझे कंधे झिन्झोड़ता हुआ पूछने लगा "क्या जिदंगी प्यार का गीत है......? मैंने देखा कि उसकी आँखों में आंसू आ गये थे ..मै भी थोड़ा सहम गया एकदम से मैंने कहा नहीं ऐसा सबके साथ नहीं होता ऐसा......बस अपनी -अपनी किस्मत है.........मै अपने कान में हेड फोन लगाकर गाने सुनने लगा पर वो जोर- जोर से गाने लगा......जिसका जितना हो आँचल यहाँ पर ..अचानक उसकी आवाज़ बढ़ गयी, सारे यात्रियों ने उसे चुप कराने की कोशिश की पर नाकाम, आखिर बस के कंडक्टर ने उतारा उसे और बीच घाट में उतार दिया और उस पर मानो असर ही नहीं पड़ा. उतरते समय भी वो जोर से गा रहा था..."है अगर दूर मंजिल तो क्या, राहे काँटों से मुश्किल तो क्या...."(नर्मदा किनारे बेचैनी की कथा III)
आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत...
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