अभी एक सरकारी दफ्तर में गया था वहाँ दो व्यक्ति साहब के बाहर कमरे की ड्यूटी दे रहे थे बाबा आदम के जमाने के काले रंग के फेड हुए जूते, मटमैले सफ़ेद कपडे, सर पर मटमैली सी टोपी, चेहरे पर सदियों की उदासी और गले में लाल रंग का पट्टा डला हुआ जिसपर पीतल चमचमाता हुआ एक बेच था जिस पर कार्यालय का नाम लिखा था और खूब बड़े अक्षरों में लिखा था "चपरासी". मैंने दोनों से बात की पता चला कि पिछले ३२ बरसों से वो इस पट्टे को धारण किये हुए है और अब उम्र निकल गयी, अब तो इस शब्द को उनके नाम के साथ जोड़ दिया गया है. बेहद अफसोस हुआ कि भारतीय लोकतंत्र में और खासकरके पदों के सम्बोधन और नामों की विसंगतियाँ अभी भी बनी हुई है, क्या इस पद को कार्यालय सहायक या सेवाप्रदाता या किसी सम्मानजनक नाम से नहीं बुलाया जा सकता? इस तरह के सामंती शब्द और उनके अर्थ ही दरअसल में अफसरों के गर्व और अहंकार को और अधिक ऊँचा कर देते है और इस मारम्मार में अपने घर / दफ्तर में जितने चपरासी होंगे उतना ही अधिक बड़ा रूतबा होगा यह मानसिकता पनपती है. अफसरों की बीबियाँ इन्हें अपने बाप का माल समझ कर नाजायज / बेजा इस्तेमाल करती है और शोषण करती है. सबसे ज्यादा इन लोगों के बच्चों और परिजनों पर क्या बीतती होगी कि वे समाज में चपरासी के बच्चे है या चपरासी की बीबी है. मुझे नहीं मालूम कि सही क्या है, किसने यह शब्द बनाया और इसे कौन हटायेगा, पर उन दो बुजुर्ग व्यक्तियों के चेहरे और हाव भाव देख कर जो मुझे दुःख हुआ उसका शब्दों में बयाँ कर पाना बहुत ही मुश्किल है, मै सोच रहा था कि यदि मेरे सीने पर कोई ऐसा पट्टा जड़ दिया जाता जो मेरे नाम का पर्याय बन् जाता जैसाकि महाश्वेता देवी जी "हजार चौरासी की माँ" में जिक्र किया है तो........
शायद समय आ गया है कि हमें अपने प्रशासनिक पदों और उन पर बैठने वालों को सम्मान जनक संबोधन देना होगा जैसे बाबू, चपरासी, भृत्य आदि ये शब्द भी कही ना कही हमारी जाति व्यवस्था और पितृ सत्ता को मजबूत करते है और बदलते समय में नए अर्थ गढते है. सवाल यह है भारतीय प्रशासनिक सेवा को सुधारने के लिए ढेरों कमीशन बने है, प्रशासन को और लोक प्रशासन को सुधारने के लिए ढेरों आयोग है पर इन सही अर्थों में काम करने वाले या सर्विस डिलीवरी वाले मेहनतकश लोगों के पदों के नामों में कोई सुधार नहीं है .......बदलिए, बदलिए बजाय इसके कि ये लोग एक दिन राज सत्ता के खिलाफ खड़े हो जाये अपनी इज्जत और अहमियत बताने को.........बदलिए व्यवस्था बदलिये (प्रशासन पुराण 53)
शायद समय आ गया है कि हमें अपने प्रशासनिक पदों और उन पर बैठने वालों को सम्मान जनक संबोधन देना होगा जैसे बाबू, चपरासी, भृत्य आदि ये शब्द भी कही ना कही हमारी जाति व्यवस्था और पितृ सत्ता को मजबूत करते है और बदलते समय में नए अर्थ गढते है. सवाल यह है भारतीय प्रशासनिक सेवा को सुधारने के लिए ढेरों कमीशन बने है, प्रशासन को और लोक प्रशासन को सुधारने के लिए ढेरों आयोग है पर इन सही अर्थों में काम करने वाले या सर्विस डिलीवरी वाले मेहनतकश लोगों के पदों के नामों में कोई सुधार नहीं है .......बदलिए, बदलिए बजाय इसके कि ये लोग एक दिन राज सत्ता के खिलाफ खड़े हो जाये अपनी इज्जत और अहमियत बताने को.........बदलिए व्यवस्था बदलिये (प्रशासन पुराण 53)
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