प्रति – रिचर्ड स्केचनर
दिनांक 23 नवम्बर, 1981
प्रिय रिचर्ड,
आप चाहते थे कि मैं “द ड्रामा रिव्यु” के “अंतर-सांस्कृतिक प्रस्तुतियाँ” अंक के लिये लिखूं। आप चाहते थे कि मैं अपने थियेटर ग्रुप “शताब्दि” से जुडे अनुभव लिखूं; उन कठिनाईयों के विषय में लिखूं जो मैनें झेली हैं तथा उन सफलताओं पर भी जो मुझे हासिल हुई है; मैं इस संदर्भित अपनी मानसिक स्थिति तथा एक नाट्य लेखक और निर्देशक के तौर पर अपना अनुभव लिखूं।
मैं क्या लिख सकता हूँ? मैं निबंधों का लेखक नहीं हूँ। मैंने कुछ नाटक लिखे, लेकिन इस लिये नहीं कि मैं कोई लेखक हूँ, बल्कि इस लिये क्योंकि मैं रंगकर्मी हूँ। आपने मुझे अंग्रेजी में लिखने को कहा है लेकिन अंग्रेजी मेरी भाषा नहीं है।“शताब्दि” के साथ थियेटर और मेरे शहर, कलकत्ता के सांस्कृतिक जंगल में मेरे अनुभव; दूसरे व्यक्तियों, समाज और जीवन से जुडे मेरे अनुभव; बेतुके हैं, घृणास्पद हैं, तो खूबसूरत भी। यह सब कुछ एक अव्यवस्थित भ्रम के ढेर में से हो कर अर्थपूर्ण और मानवतावादी रास्ता तलाशने के लम्बे इतिहास और प्रयास से बेहतर कुछ नहीं। मैं पीछे मुड कर उस रास्ते को तलाशने और समझने का यत्न करता हूँ जिससे मैं गुजर आया हूँ; मैं आगे बढ कर उसे भविष्य के लिये अभिव्यक्त करना चाहता हूँ जिससे कि अगले कुछ और कदम बढाये जा सकें।
तो मैं कहाँ से आरंभ करूं? आरंभ में क्या? अभी मैं कहाँ खडा हूँ? कहीं किसी मध्य-राह पर हूँ? बेह्तर है किसी मध्य राह पर होना क्योंकि तब मुझे क्रमिकता, निरंतरता और विषय सम्बद्धता की चिंता नहीं करनी होगी।
कलकत्ता। वह शहर जहाँ मैं पैदा हुआ और बढा। एक बनावटी शहर जो किसी विदेशी राष्ट्र के औपनिवेषिक हित साधने के लिये बना था। एक दैत्य शहर जो समुद्रतट से लगी उस ग्रामीण भूमि का लहू पी कर बडा हुआ जहाँ संभवत: वास्तविक भारत बसता है। अंग्रेजी शिक्षा पर आधारित विदेशी संस्कृति का वह शहर जहाँ देश की वास्तविक संस्कृति का दमन, विद्धवंस तथा उसके विक्रय को प्रोत्साहन है। एक शहर जिससे गहनता से मुझे नफरत है। एक शहर जिससे गहनता से मुझे प्यार है।
कलकत्ता, 6 जुलाई, 1979। कॉलेज स्क्वायर के भीड-भाड वाले इलाके में भारत की थियोसॉफिकल सोसायटी द्वारा नब्बे वर्ष के लिये एक पुरानी इमारत ली गयी। इसके द्वितिय तल पर 58 फीट लम्बा और 24 फीट चौडा एक सभागृह था, जिसमें अनेकों धूल भरी अलमारियाँ थीं जिनके भीतर आध्यात्म या कि थियोसॉफी की अनेकों किताबें और रंग उडे आध्यात्म संदर्भित तैलचित्र भरे हुए थे। इस हॉल को बहुत अनुनय के बाद ही प्रत्येक शुक्रवार के लिये “”शताब्दि” को किराये पर दिया गया था। सालभर लम्बी प्रक्रिया के बाद यहाँ “बासी खबर” का पहला प्रदर्शन हुआ था। सामूहिक रूप से किसी नाट्य निर्माण का यह “शताब्दि” का पहला अनुभव था।
वर्ष भर लम्बा-लेकिन क्या है एक साल? “शताब्दि” के किसी सदस्य को कोई मानदेय नहीं मिलता था। वे बैंकों, स्कूलों, कार्यालयों, फैक्ट्रियों में कार्य करते थे; वे हर शाम एसे काम जिससे उन्हें लगाव नहीं था और भीड-भरे परिवहन के सफर से थकने के बाद इकट्ठा होते फिर घर लौटने के लम्बे सफर के लिये क्योंकि इनमें से कुछ को अनीयमित चलने वाली उपनगरीय रेलों से जाना होता था, इसलिये जल्द ही विसर्जित भी हो जाते थे। केवल रविवार के दिन ही हम पाँच घंटे काम कर पाते थे यदि उस दिन हमें किसी गाँव, किसी बस्ती, किसी झुग्गी, किसी उपनगर, किसी कॉलेज के लॉन में या किसी कार्यालय में प्रदर्शन के लिये नहीं बुलाया गया होता था। शुक्रवार के शाम को यदि प्रदर्शन है तो गुरुवार की पूरी शाम हमें अगले दिन होने वाले नाटक के रिहर्सल में लगती थी। आखिर हमें किसी नयी परियोजना को आरंभ करने के लिये समय ही कितना मिलता था? सप्ताह के आठ घंटे हमारे काम करने का आशावादी औसत था। फिर भी, एक साल का अर्थ है कि हम पूरे एक साल उस एक नाटक के साथ आगे बढते, और वह नाटक हमारी रक्त-धमनियों में बहने लगता।
एक वर्ष पूर्व, जुलाई 1978। गोंडी की पहली प्रस्तुति – “द कॉकेसियन चाल्क सर्किल” का रूपांतरण जो मैंने ही किया था। हमें बहुत अच्छा लग रहा था। हमनें इस प्रस्तुति को तैयार करने का पूरा आनंद उठाया था – केवल पंद्रह प्रस्तोताओं नें चालीस पात्रों के किरदार संभाले हुए थे यहाँ तक कि झोपडी, नदी, दरवाज़ा, पेड, पुल आदि भी हमने मानव शरीर से निर्मित किये थे। हमने सबने महसूस किया था कि यह नाटक भारतीय है और आधुनिक है; इसे शहर के पढे लिखे जितना समझ सकते हैं उतना ही गाँव के अनपढ भी; हमारे बाद के अनुभवों नें इस सोच को सही भी सिद्ध किया था।
यह थियोसॉफिकल सोसाईटी हॉल में हमारे निरंतर किये जा रहे साप्ताहिक प्रदर्शनों का तीसरा वर्ष था। इससे पहले के दो सालों तक हमारे साप्ताहिक प्रदर्शन दूसरे कमरे में (1972-74) हुआ करते थे, और लगभग दो साल तक तो केवल मुक्ताकाश में ही हमारे नाट्य प्रदर्शन हुए थे। इमरजेंसी (1975) के दौरान पुलिस नें पब्लिक पार्कों में होने वाले हमारे प्रदर्शनों पर रोक लगा दी और तब एक भीतरी स्थान की खोज नें हमें 1976 के आरंभिक दिनों में इस हॉल तक पहुँचाया था। प्रवेश नि:शुल्क था; एक रुपये (किसी फटेहाल दूकान में ली गयी कॉफी की कीमत भी इससे अधिक थी) का दान अपेक्षित था जिसे स्वेच्छा से अधिकतम दर्शक दिया करते थे; किंतु यह प्रवेश की शर्त हर्गिज नहीं थी। दर्शकों में एक पर्चा बाँटा जाता था जिसमें अगले पाँच-छ: शुक्रवारों के कार्यक्रम का ब्यौरा हुआ करता था; अन्यथा हम केवल मौखिक प्रचार के भरोसे ही अपना प्रदर्शन करते थे (मैं भूतकाल में इस लिये बात कर रहा हूँ चूंकि अब हम दूसरे हॉल में अपना प्रदर्शन किया करते है किंतु अन्य व्यवस्थायें अब भी पूर्ववत ही हैं।) अभिनय क्षेत्र और दर्शक दीर्घा क्षेत्र का संबंध नाटक की आवश्यकताओं अनुरूप बदलता रहता था। गोंडी के लिये हम लगभग 125 सीटों की व्यवस्था रख सके थे, सभी सीटों की अग्रिम बुकिंग हो जाने से हमें प्रसन्नता हुई। यह हमारी“बासी-खबर” के लिये वर्ष भर चलने वाली प्रक्रिया की शुरुआत थी।
गोंडी के बाद हमारे हाँथ मे कोई नाटक नहीं था। उन क्रूर असंगतियों, ‘जिनमें हम जीने के लिये बाध्य हैं’ पर हम कुछ कार्यशालायें कर रहे थे। अत्यधिक संपन्नता और अपरिमित विपन्नता - एक विनाशकारी बाढ जो गाँवों के सैंकडों और हजारो घर तबाह कर देती है और कही कलकत्ता में बाढ राहत के लिये धन जुटाने जुटी किसी सिने सितारे के इर्द गिर्द अत्यधिक भीड; कलकत्ता में भूमिगत रेल्वे का निर्माण और 90% भूमिगत जल का अप्रयुक्त रह जाना जिससे कि अधिकांश कृषियोग्य भूमि से एक ही फसल बमुश्किल ली जा सके; अंतरिक्ष में उपग्रह का भेजा जाना और 70 % से अधिक जनसंख्या का गरीबी रेखा के नीचे होना; लोकतंत्र और पुलिस क्रूरता। आदमी की मूर्खता, आदमी की क्रूरता, आदमी की उपलब्धियाँ, आदमी की कठोरता यह सब केवल इस देश की ही नहीं अपितु आज सम्पूर्ण विश्व की सच्चाई है।
लेकिन आदमी के साहस का क्या? किसी नें पूछा। उन निर्भीकताओं का क्या, जिनके संघर्षों पर आधारित नाटक हमने 1972 में बनाया था? उन सबका क्या जो एक नये और बेहतर समाज का स्वप्न देखते हैं और उसकी संस्थापना के लिये मर जाते हैं? हमने निश्चित किया कि अब हम संयुक्त रूप से उन मुद्दों पर नाटक करेंगे जिनकी विषयवस्तु “क्रांति” के इर्दगिर्द होगी। क्रांति – सामूहिक साहस का चरम विस्फोट!! हमने 1855-56 की संथाल क्रांति को चुना जिसने नौ महीनों तक पूर्वी भारत में ब्रिटिश हुकूमत की पकड को हिला कर रख दिया था। आदिवासियों नें हमेशा ही सबसे बुरे क्रूर शोषण और अन्याय को सहा है। सहनशक्ति की सीमा से अधिक दबाये जाने पर वे अनेकों बार फट पडे हैं और अचानक-स्वत:स्फूर्त क्रांतियाँ संभव हुई हैं। किंतु इन विद्रोहों और क्रांतियों को इतिहास की पाठ्यपुस्तकों में कोई जगह नहीं मिली है। हमें कुछ दुर्लभ शोधकर्ताओं के कार्यों तथा धुंधली जानकारियों पर निर्भर होना पडा।
संथाल आदिवासी भारत के प्राचीनतम तथा वृहत्ततम समूहों में से एक हैं; इनकी बसाहट बिहार-बंगाल के सीमावर्ती क्षेत्रों में है। मैं यहाँ ब्रिटिश उपनिवेशकों और उनकी भारतीय कठपुतलियों –सूदखोरों, व्यापारियों, देशी रियासतों या जमीन्दारों (इन जैसों को एयर इंडिया के विज्ञापनों में बडे प्यार से “महाराजा” प्रदर्शित किया गया है) द्वारा किये गये अमानवीय शोषण, दमन, उत्पीडन का वर्णन करने का यत्न नहीं कर रहा हूँ। यह कोई भी कल्पना कर सकता है कि कैसा हुआ होगा जब पचास हजार भूखे, आधे-नंगे संथाल अपने प्राथमिक अस्त्रों – भाले, कुल्हाड़े, धनुष और वाणों से लडते हुए मारे गये होंगे, गाँवों में महिलाओं, बच्चों और बूढों को भी इस नौ महीने के वीरतापूर्ण संघर्ष के बाद धराशायी कर दिया गया था।
कार्यशालाओं, शोध और बहसों की प्रक्रिया के बाद कई निर्णय उभर कर आये। हमने निर्णय लिया कि संथाल क्रांति का केवल नाट्य प्रस्तुतिकरण ही नहीं करना है। अपने शोधकार्यों से हम अधिकाधिक सहमत हो गये थे कि वे बुनियादी स्थितियाँ आज भी ज्यों की त्यों हैं। हमारे लिये यह विषय समकालीन था। हमने समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, सर्वेक्षण रिपोर्टों से उन सामग्रियों को एकत्रित किया जिनमें गरीबी, शोषण, अन्याय, कमजोर तबकों पर नृसंशता तथा वे जो इन स्थियों में बदलाव चाहते थे उनके खिलाफ की गयी दमनात्मक कार्यवाईयों की जानकारियाँ थी। इन जानकारियों की हमने उन परिस्थितियों के सम्मुख रख कर विवेचना की जिनके कारण संथालों को क्रांति के लिये मजबूर होना पडा था। हमने यह भी निश्चित किया कि हम एसा नाटक नहीं बनायेंगे जिनके पात्र और संवाद झूठे, काल्पनिक या अविश्वसनीय हों।
निश्चित किया गया कि इसे हम किसी हमारी तरह के ही आम और आज के युवा के दृष्टिकोण से प्रदर्शित करेंगे। एक व्यक्ति पैदा होता है, शिक्षित होता है, वह पाठ्यपुस्तकों, समाचार-पत्रों, रेड़ियो, साहित्य से लगतार जानकारियों की बममारी झेलता है; इनमें कुछ झूठी तो कुछ अर्ध सत्य कुछ असंगत भी – और कभी कभी वह किसी आदिवासी गाँव में स्थानीय (ऊँची जाति के) जमीन्दारों के पाले हुए गुण्डों के द्वारी की गयी सामूहिक हत्या या सामूहिक बलात्कार की रिपोर्ट से वाकिफ होता है। या किसी सर्वेक्षण रिपोर्ट से जानता है वह “बंधुआ मजदूरी” – कोई व्यक्ति या उसका पूरा परिवार यथार्थ में कर्ज न चुका पाने के कारण (100 से 500 प्रतिशत के चक्रवर्ती व्याज पर लिया गया – आंकडों में हेर फेर कर अनपढ देनदार को दिया गया) कर गुलाम बन गया हो – क्या वह युवा यह सब कुछ भुला देने के लिये बाध्य हो कर अपने भविष्य, अपनी निजि जिन्दगी और अपने पारिवारिक समस्याओं की ओर ही देखता रहेगा? या वह थोडा ही सही, बदलाव लाने की कोशिश करेगा, क्या वह एसा कोई निर्णय लेगा? क्या वह एसा कुछ चुनेगा भले ही वह कोशिश बहुत छोटी या मामूली हो लेकिन इस सबके विषय में कुछ करने की हो?
जो कुछ हमारे साथ होता है, वह बस हो जाता है। हममे से प्रत्येक युवा अपने भीतर के “मरे हुए आदमी” को अस्वीकार करने में अपना सर्वोत्तम लगा देता है, कदाचित इसमें पूर्णत: सफल नहीं हो पाता। हमारे नाटक में वह “मरा हुआ आदमी”खामोशी से समय समय पर सोचता है जिसे नाटक में “कोरस” द्वारा हमने प्रदर्शित किया है, कभी कभी वह उद्वेलित होता है जिसे दर्शाते हुए प्रस्तोता अपने पट्टी लगी हुई दाहिनी हथेली आँखों के आगे लाता है जिसमें वह पिछली सदी के संथालों के विषय में पढ पाता है, अगली बार वह अपना अपनी बाई हथेली उठाता है और वह सब कुछ पढता है तो आज का यथार्थ है। यह ही बासी खबर था – एक नाटक जिसे हमारे पूरे समूह नें दर्द और लगाव की अनुभूतियों के साथ गढा था। यह एसा नाटक नहीं था जिसे अभिनीत किया जा सके, अपितु इसे केवल उस मानसिक स्थिति में स्वयं हो कर ही प्रस्तुत किया जा सकता था। प्रस्तिताओं नें अपनी ही भावनाओं, अपने ही सरोकारों, अपने ही प्रश्नों, अपने ही विरोधाभासों और अपनी ही ग्लानियों को प्रदर्शित किया था। नाटक की प्रक्रिया में और दौरान, हमारे नायकों में कुछ बदलाव आये, हममें कुछ बदलाव आये और हमे यह उम्मीद थी कि हमारे दर्शक, या कम-से-कम उनमें से कुछ में थोडे ही सही...बदलाव आयेंगे। इन सभी बदलवों का जोड, लगभग अतिसूक्ष्म बदलाव या हमारे कुछ सकारात्मक चयनों से संभव है एक दिन वह बदलाव भी आयेगा जिसकी हमें प्रतीक्षा है।
हाँ हमारा थियेटर एक बदला हुआ थियेटर बन चुका था। एक लम्बी यात्रा - स्पार्टकस, माईखिल, भूमा, बंगा-मानुष और भी बहुत से नाटक। हम 1972 के रंगपीठ स्तर से बाहर आ गये थे- शताब्दि के गठन के पांच साल बाद ही; और मेरे उस जीवन के बीस वर्ष बाद जब मैंने रंगमंच में कार्य करना आरंभ किया था। इसका तात्कालिक कारण तो संवाद स्थापित करना ही था- हम रंगमंच और दर्शकों के बीच के अवरोधको तोड कर लोगों के नजदीक पहुँचना चाहते थे; बिलकुल सीधा संवाद; जैसा कि किसी “लाईव-शो” मे होता है। हम अपने दर्शकों को एक संयुक्त मानवीय क्रिया का हिस्सा बनने का अनुभव देना चाहते थे। लेकिन इस रास्ते को लेते ही हमने यह भी पाया इस इस तरह हम थियेटर को पैसे की जकड से छुडा कर बाहर ला सकते हैं। हम एक मुफ्त थियेटर खडा कर सकते थे जो सार्वजनिक पार्कों में, झुग्गियों में, फैक्ट्रियों में, गाँवों में या कहीं भी जहाँ कुछ लोग जुट जायें, अपनी प्रस्तुति दे सकता था; इस तरह लोगों से मिले स्वैच्छिक अनुदानों से हमारी आवश्यकताओं भर खर्चे भी पूरे हो सकते थे। हमने सेट, स्पॉटलाईट, मंहगे कॉस्ट्यूम, मेक-अप आदि का इस्तेमाल करना किसी सिद्धांत के लिये नहीं छोड दिया था अपितु हमने यह महसूस किया कि ये आवश्यक नहीं हैं यद्यपि कभी कभी जरूरी हो जाते हैं। हमने जो आवश्यक है उस पर ध्यान दिया – मानव शरीर और मानव मष्तिष्क। हमारा थियेटर लचीला, सुवाह्य, तथा ससता बन गया था – लगभग फ्री थियेटर।
भारत का देशज थियेटर; मजबूत, जीवंत तथा देश के कामगार लोगों के द्वारा तहे-दिल से चाहा जाने वाला; वह एसी विषयवस्तुओं को आम तौर पर प्रसारित करता है जो इन श्रमजीवी समूहों के जीवन के लिये अप्रासंगिक ही होती हैं, पुरातन भी होती हैं तथा पूरी तरह से प्रतिक्रियात्मक होती हैं। शहरों में बसे बौद्धिक जनों का पश्चिमी देशों से आयातित दूसरे प्रकार का थियेटर भी इस देश में है; यह लोक नाट्य के समानांतर ही चलता है। इस थियेटर का प्रयोग शिक्षित तथा जागरूक वर्ग द्वारा समाज से जुडे विषयों एवं सुधारवादी मूल्यों को प्रसारित करने के लिये किया जाता है; किंतु यह धन की सीमा और शहर की परिधि में आबद्ध है; अधिक से अधिक प्रस्तुतियों के लिये अधिक से अधिक धन की आवश्यकता; इस किस्म का थियेटर आम आदमी की पहुँच से बहुत दूर है। एतिहासिक दृष्टि से मूल्यांकित किया जाये तो अब तीसरे किस्म के थियेटर की आवश्यकता महसूस की जाने लगी है; लचीला, सुवाह्य, मुफ्त थियेटर – एक बदला हुआ थियेटर, और यही वह है जो हम बनाने की कोशिश कर रहे हैं। यह थियेटर अपने प्रकार में प्रयोगात्मक नहीं है, हमारी एसी कोई अभिरुचि नहीं है कि अक्सर प्रकट होते रहने वाले किसी नये प्रकार के थियेटर में अपने यत्नों को सम्मिलित कर सकें।
स्वाभाविक है कि हमारा थियेटर एक आन्दोलन का चरित्र ले लेता है और इसे व्यवसाय तो हर्गिज नहीं बनाया जा सकता। जो केवल थियेटर में रुचि रखते हैं वे हमारे तरह का थियेटर नहीं कर सकते और वे भी जो केवल थियेटर पर ही अपनी आजीविका के लिये निर्भर हैं। केवल वे जो बदलाव की आवश्यकता समझते हैं तथा थियेटर के माध्यम से बदलाव में सशक्त योगदान करना चाहते हैं, वे ही इस प्रकार के थियेटर का हिस्सा हो सकते हैं। बहुत अधिक लोग नहीं हैं जो इस सोच के साथ हमारे साथ आते हैं, और जो आते भी हैं वे केवल अपना खाली समय ही इस उद्देश्य को समर्पित कर पाते हैं। इस लिये हमारा कार्य कुंठाकारी रूप तक धीमा है, लेकिन और कोई रास्ता भी तो नहीं। एक मार्ग यही है कि एसे बहुत से समूह अलग अलग जगहों पर ही इस अभियान से जुड सकें। अब इसके होने की शुरुआत हो चुकी है, कलकत्ता में तो बहुत नहीं किंतु लगे हुए नगरों में और प्रांतीय शहरों में। नये नाट्य समूहों का बनना, पुराने समूहों में बदलाव, मुक्ताकाश थियेटर स्थलों की स्थापना, विभिन्न क्षेत्रों में नि:शुल्क मुक्ताकाश नाट्य महोत्सवों का आयोजन – यह सब कुछ केवल इस राज्य में ही नहीं हो रहा बल्कि देश के अन्य हिस्सों में भी होने लगा है; कभी-कहीं स्वतंत्र रूप से तो कहीं किसी कार्य शाला की निरंतरता के रूप मे जिसे मैं स्वयं (तथा अब दूसरे रंगकर्मी भी) समय समय पर अलग अलग स्थानों पर आयोजित करते रहते हैं। दो सह-संयोजक सफलता पूर्वक बनाये गये है – तीन से चार समूह आपस में मिल कर एसी प्रस्तुतियाँ भी कर रहे हैं जिसमें अधिक पात्रों की आवश्यकता होती है, आरंभ है, अभी शुरुआत है किंतु धीरे धीरे यह बढ रहा है।
सर्वश्रेठ उत्तर यह नहीं कि कोई शहरी समूह कामगारों-मजदूरों के लिये नाटक तैयार करे। कामगारों, फैक्ट्रियों में काम करने वाले मजदूरों, किसानों, भूमिहीन श्रमिकों को अपने नाटक स्वयं बनाने और प्रस्तुत करने होंगे। हमने ही उन्हें न केवल भोजन, वस्त्र, आवास और शिक्षा से ही महरूम किया है बल्कि उनका आत्मविश्वास भी छीना है। हम रहस्योदघाटन कर उनकी सहायता कर सकते हैं; यह विश्वास दिला कर कि थियेटर पर शिक्षितों का एकाधिकार नहीं है। मेरा एक सर्वाधिक श्रेष्ठतम और आत्म संतुष्टि का अनुभव अनपढ - अर्ध-शिक्षित किसानों और भूमिहीन खेतीहरों के सुन्दर बन के जंगलों की सीमाओं से लगे (बंगाल के दक्षिण में) सूदूर गाँव से आये समूह के साथ सार्य करने का है। उन्होंने अपने ही जीवन और उन समस्याओं पर प्रस्तुतियाँ तैयार की थी जिन्हें वे अपने गाँवों में महसूस करते थे; मैंने इस समूह के साथ एक कार्यशाला की थी। मैंने हाल ही में पश्चिमी भारत के गुजरात के एक गाँव में भूमि हीन मजदूरों के साथ कार्यशाला की है जिसके आशावादी नतीजे मिले हैं।
यह प्रक्रिया व्यापक स्तर पर प्रसारित तभी हो सकती है जब श्रमिक वर्ग के दास्ता-विरोधी सामाजिक आर्थिक आन्दोलनों का व्यापक प्रसार हो सकेगा। जब यह होगा, तब तीसरे किस्म का थियेटर (इस संदर्भ का मैं उपर प्रयोग कर चुका हूँ) का कोई अलग से कार्य नहीं रह जायेगा बल्कि यह थियेटर के पहले प्रकार में ही समाहित हो जायेगा। रिचर्ड, यही मैं इस समय लिख सकता हूँ। यह सब अपर्याप्त, अधूरा और भ्रमित करने वाला है और पश्चिम के उन पाठकों में यह बहुत कम अभिव्यक्त होगा जो वास्तविक भारत को कम जानते हैं। तुमने शहरों और गाँवों में बहुत कुछ देखा है, तुमने हमारे समूह के कार्य को भी जानते हो, तुम संभवत: यह समझ सकोगे कि मैं क्या कहने की कोशिश कर रहा हूँ। इस लिये यह पत्र तुम्हारे लिये है।
स्नेह,
बादल
स्त्रोत: दि ड्रामा रिव्यु: अंक 26, क्र. -2, इंटरकल्चरल पर्फॉर्मेंस (समर, 1982)
अनुवाद: थियेटर की गतिविधियों पर केन्द्रित "रंगकर्म" वेबमंच के सौजन्य से राजीव रंजन प्रसाद द्वारा।
दिनांक 23 नवम्बर, 1981
प्रिय रिचर्ड,
आप चाहते थे कि मैं “द ड्रामा रिव्यु” के “अंतर-सांस्कृतिक प्रस्तुतियाँ” अंक के लिये लिखूं। आप चाहते थे कि मैं अपने थियेटर ग्रुप “शताब्दि” से जुडे अनुभव लिखूं; उन कठिनाईयों के विषय में लिखूं जो मैनें झेली हैं तथा उन सफलताओं पर भी जो मुझे हासिल हुई है; मैं इस संदर्भित अपनी मानसिक स्थिति तथा एक नाट्य लेखक और निर्देशक के तौर पर अपना अनुभव लिखूं।
मैं क्या लिख सकता हूँ? मैं निबंधों का लेखक नहीं हूँ। मैंने कुछ नाटक लिखे, लेकिन इस लिये नहीं कि मैं कोई लेखक हूँ, बल्कि इस लिये क्योंकि मैं रंगकर्मी हूँ। आपने मुझे अंग्रेजी में लिखने को कहा है लेकिन अंग्रेजी मेरी भाषा नहीं है।“शताब्दि” के साथ थियेटर और मेरे शहर, कलकत्ता के सांस्कृतिक जंगल में मेरे अनुभव; दूसरे व्यक्तियों, समाज और जीवन से जुडे मेरे अनुभव; बेतुके हैं, घृणास्पद हैं, तो खूबसूरत भी। यह सब कुछ एक अव्यवस्थित भ्रम के ढेर में से हो कर अर्थपूर्ण और मानवतावादी रास्ता तलाशने के लम्बे इतिहास और प्रयास से बेहतर कुछ नहीं। मैं पीछे मुड कर उस रास्ते को तलाशने और समझने का यत्न करता हूँ जिससे मैं गुजर आया हूँ; मैं आगे बढ कर उसे भविष्य के लिये अभिव्यक्त करना चाहता हूँ जिससे कि अगले कुछ और कदम बढाये जा सकें।
तो मैं कहाँ से आरंभ करूं? आरंभ में क्या? अभी मैं कहाँ खडा हूँ? कहीं किसी मध्य-राह पर हूँ? बेह्तर है किसी मध्य राह पर होना क्योंकि तब मुझे क्रमिकता, निरंतरता और विषय सम्बद्धता की चिंता नहीं करनी होगी।
कलकत्ता। वह शहर जहाँ मैं पैदा हुआ और बढा। एक बनावटी शहर जो किसी विदेशी राष्ट्र के औपनिवेषिक हित साधने के लिये बना था। एक दैत्य शहर जो समुद्रतट से लगी उस ग्रामीण भूमि का लहू पी कर बडा हुआ जहाँ संभवत: वास्तविक भारत बसता है। अंग्रेजी शिक्षा पर आधारित विदेशी संस्कृति का वह शहर जहाँ देश की वास्तविक संस्कृति का दमन, विद्धवंस तथा उसके विक्रय को प्रोत्साहन है। एक शहर जिससे गहनता से मुझे नफरत है। एक शहर जिससे गहनता से मुझे प्यार है।
कलकत्ता, 6 जुलाई, 1979। कॉलेज स्क्वायर के भीड-भाड वाले इलाके में भारत की थियोसॉफिकल सोसायटी द्वारा नब्बे वर्ष के लिये एक पुरानी इमारत ली गयी। इसके द्वितिय तल पर 58 फीट लम्बा और 24 फीट चौडा एक सभागृह था, जिसमें अनेकों धूल भरी अलमारियाँ थीं जिनके भीतर आध्यात्म या कि थियोसॉफी की अनेकों किताबें और रंग उडे आध्यात्म संदर्भित तैलचित्र भरे हुए थे। इस हॉल को बहुत अनुनय के बाद ही प्रत्येक शुक्रवार के लिये “”शताब्दि” को किराये पर दिया गया था। सालभर लम्बी प्रक्रिया के बाद यहाँ “बासी खबर” का पहला प्रदर्शन हुआ था। सामूहिक रूप से किसी नाट्य निर्माण का यह “शताब्दि” का पहला अनुभव था।
वर्ष भर लम्बा-लेकिन क्या है एक साल? “शताब्दि” के किसी सदस्य को कोई मानदेय नहीं मिलता था। वे बैंकों, स्कूलों, कार्यालयों, फैक्ट्रियों में कार्य करते थे; वे हर शाम एसे काम जिससे उन्हें लगाव नहीं था और भीड-भरे परिवहन के सफर से थकने के बाद इकट्ठा होते फिर घर लौटने के लम्बे सफर के लिये क्योंकि इनमें से कुछ को अनीयमित चलने वाली उपनगरीय रेलों से जाना होता था, इसलिये जल्द ही विसर्जित भी हो जाते थे। केवल रविवार के दिन ही हम पाँच घंटे काम कर पाते थे यदि उस दिन हमें किसी गाँव, किसी बस्ती, किसी झुग्गी, किसी उपनगर, किसी कॉलेज के लॉन में या किसी कार्यालय में प्रदर्शन के लिये नहीं बुलाया गया होता था। शुक्रवार के शाम को यदि प्रदर्शन है तो गुरुवार की पूरी शाम हमें अगले दिन होने वाले नाटक के रिहर्सल में लगती थी। आखिर हमें किसी नयी परियोजना को आरंभ करने के लिये समय ही कितना मिलता था? सप्ताह के आठ घंटे हमारे काम करने का आशावादी औसत था। फिर भी, एक साल का अर्थ है कि हम पूरे एक साल उस एक नाटक के साथ आगे बढते, और वह नाटक हमारी रक्त-धमनियों में बहने लगता।
एक वर्ष पूर्व, जुलाई 1978। गोंडी की पहली प्रस्तुति – “द कॉकेसियन चाल्क सर्किल” का रूपांतरण जो मैंने ही किया था। हमें बहुत अच्छा लग रहा था। हमनें इस प्रस्तुति को तैयार करने का पूरा आनंद उठाया था – केवल पंद्रह प्रस्तोताओं नें चालीस पात्रों के किरदार संभाले हुए थे यहाँ तक कि झोपडी, नदी, दरवाज़ा, पेड, पुल आदि भी हमने मानव शरीर से निर्मित किये थे। हमने सबने महसूस किया था कि यह नाटक भारतीय है और आधुनिक है; इसे शहर के पढे लिखे जितना समझ सकते हैं उतना ही गाँव के अनपढ भी; हमारे बाद के अनुभवों नें इस सोच को सही भी सिद्ध किया था।
यह थियोसॉफिकल सोसाईटी हॉल में हमारे निरंतर किये जा रहे साप्ताहिक प्रदर्शनों का तीसरा वर्ष था। इससे पहले के दो सालों तक हमारे साप्ताहिक प्रदर्शन दूसरे कमरे में (1972-74) हुआ करते थे, और लगभग दो साल तक तो केवल मुक्ताकाश में ही हमारे नाट्य प्रदर्शन हुए थे। इमरजेंसी (1975) के दौरान पुलिस नें पब्लिक पार्कों में होने वाले हमारे प्रदर्शनों पर रोक लगा दी और तब एक भीतरी स्थान की खोज नें हमें 1976 के आरंभिक दिनों में इस हॉल तक पहुँचाया था। प्रवेश नि:शुल्क था; एक रुपये (किसी फटेहाल दूकान में ली गयी कॉफी की कीमत भी इससे अधिक थी) का दान अपेक्षित था जिसे स्वेच्छा से अधिकतम दर्शक दिया करते थे; किंतु यह प्रवेश की शर्त हर्गिज नहीं थी। दर्शकों में एक पर्चा बाँटा जाता था जिसमें अगले पाँच-छ: शुक्रवारों के कार्यक्रम का ब्यौरा हुआ करता था; अन्यथा हम केवल मौखिक प्रचार के भरोसे ही अपना प्रदर्शन करते थे (मैं भूतकाल में इस लिये बात कर रहा हूँ चूंकि अब हम दूसरे हॉल में अपना प्रदर्शन किया करते है किंतु अन्य व्यवस्थायें अब भी पूर्ववत ही हैं।) अभिनय क्षेत्र और दर्शक दीर्घा क्षेत्र का संबंध नाटक की आवश्यकताओं अनुरूप बदलता रहता था। गोंडी के लिये हम लगभग 125 सीटों की व्यवस्था रख सके थे, सभी सीटों की अग्रिम बुकिंग हो जाने से हमें प्रसन्नता हुई। यह हमारी“बासी-खबर” के लिये वर्ष भर चलने वाली प्रक्रिया की शुरुआत थी।
गोंडी के बाद हमारे हाँथ मे कोई नाटक नहीं था। उन क्रूर असंगतियों, ‘जिनमें हम जीने के लिये बाध्य हैं’ पर हम कुछ कार्यशालायें कर रहे थे। अत्यधिक संपन्नता और अपरिमित विपन्नता - एक विनाशकारी बाढ जो गाँवों के सैंकडों और हजारो घर तबाह कर देती है और कही कलकत्ता में बाढ राहत के लिये धन जुटाने जुटी किसी सिने सितारे के इर्द गिर्द अत्यधिक भीड; कलकत्ता में भूमिगत रेल्वे का निर्माण और 90% भूमिगत जल का अप्रयुक्त रह जाना जिससे कि अधिकांश कृषियोग्य भूमि से एक ही फसल बमुश्किल ली जा सके; अंतरिक्ष में उपग्रह का भेजा जाना और 70 % से अधिक जनसंख्या का गरीबी रेखा के नीचे होना; लोकतंत्र और पुलिस क्रूरता। आदमी की मूर्खता, आदमी की क्रूरता, आदमी की उपलब्धियाँ, आदमी की कठोरता यह सब केवल इस देश की ही नहीं अपितु आज सम्पूर्ण विश्व की सच्चाई है।
लेकिन आदमी के साहस का क्या? किसी नें पूछा। उन निर्भीकताओं का क्या, जिनके संघर्षों पर आधारित नाटक हमने 1972 में बनाया था? उन सबका क्या जो एक नये और बेहतर समाज का स्वप्न देखते हैं और उसकी संस्थापना के लिये मर जाते हैं? हमने निश्चित किया कि अब हम संयुक्त रूप से उन मुद्दों पर नाटक करेंगे जिनकी विषयवस्तु “क्रांति” के इर्दगिर्द होगी। क्रांति – सामूहिक साहस का चरम विस्फोट!! हमने 1855-56 की संथाल क्रांति को चुना जिसने नौ महीनों तक पूर्वी भारत में ब्रिटिश हुकूमत की पकड को हिला कर रख दिया था। आदिवासियों नें हमेशा ही सबसे बुरे क्रूर शोषण और अन्याय को सहा है। सहनशक्ति की सीमा से अधिक दबाये जाने पर वे अनेकों बार फट पडे हैं और अचानक-स्वत:स्फूर्त क्रांतियाँ संभव हुई हैं। किंतु इन विद्रोहों और क्रांतियों को इतिहास की पाठ्यपुस्तकों में कोई जगह नहीं मिली है। हमें कुछ दुर्लभ शोधकर्ताओं के कार्यों तथा धुंधली जानकारियों पर निर्भर होना पडा।
संथाल आदिवासी भारत के प्राचीनतम तथा वृहत्ततम समूहों में से एक हैं; इनकी बसाहट बिहार-बंगाल के सीमावर्ती क्षेत्रों में है। मैं यहाँ ब्रिटिश उपनिवेशकों और उनकी भारतीय कठपुतलियों –सूदखोरों, व्यापारियों, देशी रियासतों या जमीन्दारों (इन जैसों को एयर इंडिया के विज्ञापनों में बडे प्यार से “महाराजा” प्रदर्शित किया गया है) द्वारा किये गये अमानवीय शोषण, दमन, उत्पीडन का वर्णन करने का यत्न नहीं कर रहा हूँ। यह कोई भी कल्पना कर सकता है कि कैसा हुआ होगा जब पचास हजार भूखे, आधे-नंगे संथाल अपने प्राथमिक अस्त्रों – भाले, कुल्हाड़े, धनुष और वाणों से लडते हुए मारे गये होंगे, गाँवों में महिलाओं, बच्चों और बूढों को भी इस नौ महीने के वीरतापूर्ण संघर्ष के बाद धराशायी कर दिया गया था।
कार्यशालाओं, शोध और बहसों की प्रक्रिया के बाद कई निर्णय उभर कर आये। हमने निर्णय लिया कि संथाल क्रांति का केवल नाट्य प्रस्तुतिकरण ही नहीं करना है। अपने शोधकार्यों से हम अधिकाधिक सहमत हो गये थे कि वे बुनियादी स्थितियाँ आज भी ज्यों की त्यों हैं। हमारे लिये यह विषय समकालीन था। हमने समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, सर्वेक्षण रिपोर्टों से उन सामग्रियों को एकत्रित किया जिनमें गरीबी, शोषण, अन्याय, कमजोर तबकों पर नृसंशता तथा वे जो इन स्थियों में बदलाव चाहते थे उनके खिलाफ की गयी दमनात्मक कार्यवाईयों की जानकारियाँ थी। इन जानकारियों की हमने उन परिस्थितियों के सम्मुख रख कर विवेचना की जिनके कारण संथालों को क्रांति के लिये मजबूर होना पडा था। हमने यह भी निश्चित किया कि हम एसा नाटक नहीं बनायेंगे जिनके पात्र और संवाद झूठे, काल्पनिक या अविश्वसनीय हों।
निश्चित किया गया कि इसे हम किसी हमारी तरह के ही आम और आज के युवा के दृष्टिकोण से प्रदर्शित करेंगे। एक व्यक्ति पैदा होता है, शिक्षित होता है, वह पाठ्यपुस्तकों, समाचार-पत्रों, रेड़ियो, साहित्य से लगतार जानकारियों की बममारी झेलता है; इनमें कुछ झूठी तो कुछ अर्ध सत्य कुछ असंगत भी – और कभी कभी वह किसी आदिवासी गाँव में स्थानीय (ऊँची जाति के) जमीन्दारों के पाले हुए गुण्डों के द्वारी की गयी सामूहिक हत्या या सामूहिक बलात्कार की रिपोर्ट से वाकिफ होता है। या किसी सर्वेक्षण रिपोर्ट से जानता है वह “बंधुआ मजदूरी” – कोई व्यक्ति या उसका पूरा परिवार यथार्थ में कर्ज न चुका पाने के कारण (100 से 500 प्रतिशत के चक्रवर्ती व्याज पर लिया गया – आंकडों में हेर फेर कर अनपढ देनदार को दिया गया) कर गुलाम बन गया हो – क्या वह युवा यह सब कुछ भुला देने के लिये बाध्य हो कर अपने भविष्य, अपनी निजि जिन्दगी और अपने पारिवारिक समस्याओं की ओर ही देखता रहेगा? या वह थोडा ही सही, बदलाव लाने की कोशिश करेगा, क्या वह एसा कोई निर्णय लेगा? क्या वह एसा कुछ चुनेगा भले ही वह कोशिश बहुत छोटी या मामूली हो लेकिन इस सबके विषय में कुछ करने की हो?
जो कुछ हमारे साथ होता है, वह बस हो जाता है। हममे से प्रत्येक युवा अपने भीतर के “मरे हुए आदमी” को अस्वीकार करने में अपना सर्वोत्तम लगा देता है, कदाचित इसमें पूर्णत: सफल नहीं हो पाता। हमारे नाटक में वह “मरा हुआ आदमी”खामोशी से समय समय पर सोचता है जिसे नाटक में “कोरस” द्वारा हमने प्रदर्शित किया है, कभी कभी वह उद्वेलित होता है जिसे दर्शाते हुए प्रस्तोता अपने पट्टी लगी हुई दाहिनी हथेली आँखों के आगे लाता है जिसमें वह पिछली सदी के संथालों के विषय में पढ पाता है, अगली बार वह अपना अपनी बाई हथेली उठाता है और वह सब कुछ पढता है तो आज का यथार्थ है। यह ही बासी खबर था – एक नाटक जिसे हमारे पूरे समूह नें दर्द और लगाव की अनुभूतियों के साथ गढा था। यह एसा नाटक नहीं था जिसे अभिनीत किया जा सके, अपितु इसे केवल उस मानसिक स्थिति में स्वयं हो कर ही प्रस्तुत किया जा सकता था। प्रस्तिताओं नें अपनी ही भावनाओं, अपने ही सरोकारों, अपने ही प्रश्नों, अपने ही विरोधाभासों और अपनी ही ग्लानियों को प्रदर्शित किया था। नाटक की प्रक्रिया में और दौरान, हमारे नायकों में कुछ बदलाव आये, हममें कुछ बदलाव आये और हमे यह उम्मीद थी कि हमारे दर्शक, या कम-से-कम उनमें से कुछ में थोडे ही सही...बदलाव आयेंगे। इन सभी बदलवों का जोड, लगभग अतिसूक्ष्म बदलाव या हमारे कुछ सकारात्मक चयनों से संभव है एक दिन वह बदलाव भी आयेगा जिसकी हमें प्रतीक्षा है।
हाँ हमारा थियेटर एक बदला हुआ थियेटर बन चुका था। एक लम्बी यात्रा - स्पार्टकस, माईखिल, भूमा, बंगा-मानुष और भी बहुत से नाटक। हम 1972 के रंगपीठ स्तर से बाहर आ गये थे- शताब्दि के गठन के पांच साल बाद ही; और मेरे उस जीवन के बीस वर्ष बाद जब मैंने रंगमंच में कार्य करना आरंभ किया था। इसका तात्कालिक कारण तो संवाद स्थापित करना ही था- हम रंगमंच और दर्शकों के बीच के अवरोधको तोड कर लोगों के नजदीक पहुँचना चाहते थे; बिलकुल सीधा संवाद; जैसा कि किसी “लाईव-शो” मे होता है। हम अपने दर्शकों को एक संयुक्त मानवीय क्रिया का हिस्सा बनने का अनुभव देना चाहते थे। लेकिन इस रास्ते को लेते ही हमने यह भी पाया इस इस तरह हम थियेटर को पैसे की जकड से छुडा कर बाहर ला सकते हैं। हम एक मुफ्त थियेटर खडा कर सकते थे जो सार्वजनिक पार्कों में, झुग्गियों में, फैक्ट्रियों में, गाँवों में या कहीं भी जहाँ कुछ लोग जुट जायें, अपनी प्रस्तुति दे सकता था; इस तरह लोगों से मिले स्वैच्छिक अनुदानों से हमारी आवश्यकताओं भर खर्चे भी पूरे हो सकते थे। हमने सेट, स्पॉटलाईट, मंहगे कॉस्ट्यूम, मेक-अप आदि का इस्तेमाल करना किसी सिद्धांत के लिये नहीं छोड दिया था अपितु हमने यह महसूस किया कि ये आवश्यक नहीं हैं यद्यपि कभी कभी जरूरी हो जाते हैं। हमने जो आवश्यक है उस पर ध्यान दिया – मानव शरीर और मानव मष्तिष्क। हमारा थियेटर लचीला, सुवाह्य, तथा ससता बन गया था – लगभग फ्री थियेटर।
भारत का देशज थियेटर; मजबूत, जीवंत तथा देश के कामगार लोगों के द्वारा तहे-दिल से चाहा जाने वाला; वह एसी विषयवस्तुओं को आम तौर पर प्रसारित करता है जो इन श्रमजीवी समूहों के जीवन के लिये अप्रासंगिक ही होती हैं, पुरातन भी होती हैं तथा पूरी तरह से प्रतिक्रियात्मक होती हैं। शहरों में बसे बौद्धिक जनों का पश्चिमी देशों से आयातित दूसरे प्रकार का थियेटर भी इस देश में है; यह लोक नाट्य के समानांतर ही चलता है। इस थियेटर का प्रयोग शिक्षित तथा जागरूक वर्ग द्वारा समाज से जुडे विषयों एवं सुधारवादी मूल्यों को प्रसारित करने के लिये किया जाता है; किंतु यह धन की सीमा और शहर की परिधि में आबद्ध है; अधिक से अधिक प्रस्तुतियों के लिये अधिक से अधिक धन की आवश्यकता; इस किस्म का थियेटर आम आदमी की पहुँच से बहुत दूर है। एतिहासिक दृष्टि से मूल्यांकित किया जाये तो अब तीसरे किस्म के थियेटर की आवश्यकता महसूस की जाने लगी है; लचीला, सुवाह्य, मुफ्त थियेटर – एक बदला हुआ थियेटर, और यही वह है जो हम बनाने की कोशिश कर रहे हैं। यह थियेटर अपने प्रकार में प्रयोगात्मक नहीं है, हमारी एसी कोई अभिरुचि नहीं है कि अक्सर प्रकट होते रहने वाले किसी नये प्रकार के थियेटर में अपने यत्नों को सम्मिलित कर सकें।
स्वाभाविक है कि हमारा थियेटर एक आन्दोलन का चरित्र ले लेता है और इसे व्यवसाय तो हर्गिज नहीं बनाया जा सकता। जो केवल थियेटर में रुचि रखते हैं वे हमारे तरह का थियेटर नहीं कर सकते और वे भी जो केवल थियेटर पर ही अपनी आजीविका के लिये निर्भर हैं। केवल वे जो बदलाव की आवश्यकता समझते हैं तथा थियेटर के माध्यम से बदलाव में सशक्त योगदान करना चाहते हैं, वे ही इस प्रकार के थियेटर का हिस्सा हो सकते हैं। बहुत अधिक लोग नहीं हैं जो इस सोच के साथ हमारे साथ आते हैं, और जो आते भी हैं वे केवल अपना खाली समय ही इस उद्देश्य को समर्पित कर पाते हैं। इस लिये हमारा कार्य कुंठाकारी रूप तक धीमा है, लेकिन और कोई रास्ता भी तो नहीं। एक मार्ग यही है कि एसे बहुत से समूह अलग अलग जगहों पर ही इस अभियान से जुड सकें। अब इसके होने की शुरुआत हो चुकी है, कलकत्ता में तो बहुत नहीं किंतु लगे हुए नगरों में और प्रांतीय शहरों में। नये नाट्य समूहों का बनना, पुराने समूहों में बदलाव, मुक्ताकाश थियेटर स्थलों की स्थापना, विभिन्न क्षेत्रों में नि:शुल्क मुक्ताकाश नाट्य महोत्सवों का आयोजन – यह सब कुछ केवल इस राज्य में ही नहीं हो रहा बल्कि देश के अन्य हिस्सों में भी होने लगा है; कभी-कहीं स्वतंत्र रूप से तो कहीं किसी कार्य शाला की निरंतरता के रूप मे जिसे मैं स्वयं (तथा अब दूसरे रंगकर्मी भी) समय समय पर अलग अलग स्थानों पर आयोजित करते रहते हैं। दो सह-संयोजक सफलता पूर्वक बनाये गये है – तीन से चार समूह आपस में मिल कर एसी प्रस्तुतियाँ भी कर रहे हैं जिसमें अधिक पात्रों की आवश्यकता होती है, आरंभ है, अभी शुरुआत है किंतु धीरे धीरे यह बढ रहा है।
सर्वश्रेठ उत्तर यह नहीं कि कोई शहरी समूह कामगारों-मजदूरों के लिये नाटक तैयार करे। कामगारों, फैक्ट्रियों में काम करने वाले मजदूरों, किसानों, भूमिहीन श्रमिकों को अपने नाटक स्वयं बनाने और प्रस्तुत करने होंगे। हमने ही उन्हें न केवल भोजन, वस्त्र, आवास और शिक्षा से ही महरूम किया है बल्कि उनका आत्मविश्वास भी छीना है। हम रहस्योदघाटन कर उनकी सहायता कर सकते हैं; यह विश्वास दिला कर कि थियेटर पर शिक्षितों का एकाधिकार नहीं है। मेरा एक सर्वाधिक श्रेष्ठतम और आत्म संतुष्टि का अनुभव अनपढ - अर्ध-शिक्षित किसानों और भूमिहीन खेतीहरों के सुन्दर बन के जंगलों की सीमाओं से लगे (बंगाल के दक्षिण में) सूदूर गाँव से आये समूह के साथ सार्य करने का है। उन्होंने अपने ही जीवन और उन समस्याओं पर प्रस्तुतियाँ तैयार की थी जिन्हें वे अपने गाँवों में महसूस करते थे; मैंने इस समूह के साथ एक कार्यशाला की थी। मैंने हाल ही में पश्चिमी भारत के गुजरात के एक गाँव में भूमि हीन मजदूरों के साथ कार्यशाला की है जिसके आशावादी नतीजे मिले हैं।
यह प्रक्रिया व्यापक स्तर पर प्रसारित तभी हो सकती है जब श्रमिक वर्ग के दास्ता-विरोधी सामाजिक आर्थिक आन्दोलनों का व्यापक प्रसार हो सकेगा। जब यह होगा, तब तीसरे किस्म का थियेटर (इस संदर्भ का मैं उपर प्रयोग कर चुका हूँ) का कोई अलग से कार्य नहीं रह जायेगा बल्कि यह थियेटर के पहले प्रकार में ही समाहित हो जायेगा। रिचर्ड, यही मैं इस समय लिख सकता हूँ। यह सब अपर्याप्त, अधूरा और भ्रमित करने वाला है और पश्चिम के उन पाठकों में यह बहुत कम अभिव्यक्त होगा जो वास्तविक भारत को कम जानते हैं। तुमने शहरों और गाँवों में बहुत कुछ देखा है, तुमने हमारे समूह के कार्य को भी जानते हो, तुम संभवत: यह समझ सकोगे कि मैं क्या कहने की कोशिश कर रहा हूँ। इस लिये यह पत्र तुम्हारे लिये है।
स्नेह,
बादल
स्त्रोत: दि ड्रामा रिव्यु: अंक 26, क्र. -2, इंटरकल्चरल पर्फॉर्मेंस (समर, 1982)
अनुवाद: थियेटर की गतिविधियों पर केन्द्रित "रंगकर्म" वेबमंच के सौजन्य से राजीव रंजन प्रसाद द्वारा।
(मैंने अनुवाद विधा पर बहुत कार्य नहीं किया है। जब भी कोई अच्छी रचना निगाह
से गुजरती है तथा समय उपलब्ध होता है, छुट-पुट अनुवाद करता रहता हूँ। बादल
सरकार का यह पत्र उनके रंगकर्म को समझने की दिशा में महत्वपूर्ण दस्तावेज है जिसका अनुवाद मैने प्रस्तुत किया है। आप भी पढें और कायल हो जायें बादल सरकार की जीवटता और संघर्ष का)
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