कमरे का पानी जितना उलीच रहा था उतनी ही तेजी से भर रहा था कमरा, सारा सामान यूँही अस्त व्यस्त सा पड़ा था और दाल आटा बह गया था जीवन की बिलकुल बुनियादी आवश्यकता यूँ पानी में बहते देख वह लगभग हक्का बक्का सा रह गया था अपने जीवन के चार दशकों को याद करके सिहर उठता था अक्सर यादों ने कितना कुछ उसे दिया था दर्द, संताप, संत्रास, विलाप, स्मृतियों का दंश, तनाव, पछतावे और एकाकीपन पर इस सबको वो छोडकर खुश था कि कभी कभी जीवन में किसी को कुछ मिलता नहीं है और जो जीवन वो अपनी शर्तों पर जी रहा है- पिछले पन्द्रह सालों से, वह भी करोड़ों लोगों का एक महज सपना ही तो है, पर एकाएक आये इस तूफ़ान ने और कमरे में छोटी सी सिमटी हुई जिंदगी को और भीगो दिया. यह आत्मा को किसी कुए में डूबोने जैसा था जबरन....लगा कि यह सिर्फ गद्दे- तकियों, कपड़ों का भीगना नहीं, सामान का बहना- नहीं वरन ये वो घाव है जो शरीर, आत्मा और कमजोर पड़े जज्बे को बाहर ले आया है. सारा काला और घिघौना अतीत एक बदबूदार मवाद में बह रहा है और जीवन के सुख-दुःख इस मवाद में शामिल है , जिस तरह से यह सामान जिसे उसने गत पन्द्रह सालों में जतन से खरीदा, सहेजा और बचाया था... मांज पोछकर चमकाया था, वो यकायक छोड़ चला है एक नए सफर की ओर जैसे आत्मा बदलती है चोला, जैसे बदल जाता है नजरिया, जैसे छोड़ देते है अपने बहुत करीबी लोग जो साँसों में बसे थे, जैसे गुजर जाती है परछाई छाँव में, जैसे छोड़ देते है पत्ते पेड़ की मजबूत डगाल को, खिल जाती है पाँखुरियाँ फूल की नाभि से. चलो अच्छा हुआ यह भी देख लिया, पिछले चार दशकों में यही बाकी था जीवन में भुगतने को. पानी का प्रलाप जारी है यह अब और क्या - क्या ले जाएगा समझ नहीं आ रहा पर यह तय है कि उस दिन जो सब कुछ जमींदोज करके आया था उससे ज्यादा तो नहीं वसूल सकता, आसमान पर बादल और घने हो गये है, बिजलिया कडक रही है, चारों ओर से पानी की बूँदें अपने उद्दाम वेग से चली आ रही है और मै कमरे के बीचो बीच खडा अपने निस्तेज हो चुके और खंडित हो चुके अस्तित्व को रेशा रेशा बहते देख रहा हूँ.........(नर्मदा के किनारे से बेचैनी की कथा VI)
आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत...
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