राष्ट्रीय स्वास्थय मिशन में काम करके काम इतना हावी हो गया था उस पर की वो सबको एक ही सांचे में देखता था घर हो या बाहर, सब तरफ उसे लोग टारगेट ही नजर आते थे, उसे हर जगह कमीशन दीखता था, और देश के स्वास्थ्य पर बात करते समय उसकी आँखों में एक अजीब सी चमक आ जाती थी, आखिर यह स्वाभाविक भी था क्योकि इसी से तो उसने कार, घर, धन दौलत और सब इकट्ठा किया था. आजकल वो एक नई नौकरी में है पर उस चोले से निकल नहीं पा रहा है बेचारा, उसकी प्रतिबद्धता जबरदस्त है कोइ जवाब नहीं (३८ समाप्त)
आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत...
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