गांव में जब वो ग्यारहवी की परीक्षा में पूरक पा गया तो भाग आया एक संस्था में फिर वहा चाय पानी बनाने लगा और धीरे धीरे सब "काम" सीख गया, एक लडकी पटाई, पर मामला जमा नहीं फिर अपनी जाति की नौकरी वाली लडकी से शादी कर ली, कई जगह काम किया और खूब नक़ल करके लेख लिखे, छात्रवृति कबाड़ी और पुरस्कार भी जुगाड़े, बीबी की नौकरी थी ही, बस तीन चार मकान बना लिए, आजकल प्रदेश के व्यापारिक नगर में ज्ञान की दूकान चलाता है जय हो(एनजीओ पुराण भाग ३४ समाप्त)
आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत...
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