संविधान और क़ानून की समीक्षा का समय
आज के पटियाला हाउस मामले को मीडिया ने कल से ऐसा प्रचारित किया था मानो यह दिन बहुत महत्वपूर्ण हो, और एक पार्टी विशेष के लोगों को सजा ऐ मौत होने वाली हो या कोई गंभीर किस्म का कानूनी इतिहास बनने वाला हो. यह निहायत ही एक विपक्षी पार्टी का व्यक्तिगत मामला था जिसमे उस पार्टी के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष को महज मुकदमा शुरू होने से पहले उपस्थित होकर यह जताना था कि वे कोर्ट की प्रक्रियाओं से ऊपर नहीं है और एक व्यक्ति विशेष द्वारा लगाए गए आरोपों के तारतम्य में वे कानूनी प्रक्रिया शुरू करने के लिए तैयार है. सरकार ने भी पूरी दिल्ली की सडकों को पुलिस और फ़ोर्स से ऐसे तान दिया और छावनी बना दिया - मानो देश में बहुत बड़ी कोई गंभीर "ला एंड आर्डर" की समस्या खडी हो गयी हो, इस तरह से तो न्याय देने वाले न्यायाधीशों उपर मानसिक दबाव बनेगा और वे निष्पक्ष रूप से फैसला नहीं दे पायेंगे. आज की घटना को भारतीय क़ानून, मीडिया प्रचार और आम लोगों की बहस के सन्दर्भ में नए सिरे से देखने की जरुरत है.
दरअसल में भारतीय कानून को एक गम्भीर किस्म के आत्म मूल्यांकन की जरूरत है। पिछले पंद्रह दिनों में तीन बड़े फैसले लोअर कोर्ट यानी हाई कोर्ट ने सुनाये है जिनमे से सलमान का छूटना, निर्भया के तथाकथित नाबालिग अपराधी का छूटना, कांग्रेस के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष का मात्र चार मिनिट में बाहर आना और ठीक इसके विपरीत हम जानते है की हमारे ही देश में आज बरसों से विचाराधीन कैदियों का बगैर सुनवाई के मर जाते है हर वर्ष , इन निरपराध कैदियों का मर जाना दर्शाता है कि हम भले ही कहें कि क़ानून के सामने सब समान है, परंतु देश के नागरिक कितने स्तरों और औकातों में बंटे हुए है यह इन तीन ताज़ा फैसलो से साबित हो गया. जबकि ठीक इसके विपरीत नेशनल क्राईम ब्यूरो के आंकड़ें दर्शाते है कि अपराध तो बढ़ रहे है परन्तु कोर्ट में फैसलों की गति बहुत सुस्त है. शायद यह भी सही है कि आज हमें अम्बेडकर कृत संविधान को भी बगैर किसी भय और दलित तुष्टिकरण को माने अब पुनः देखना चाहिए और अंग्रेजों के बनाये नियमों को भी विलोपित करके विशुद्ध भारतीय संदर्भ में बदलना चाहिए. दुर्भाग्य यह है कि गुजरात न्यायालय के एक न्यायाधीश जब आरक्षण की पुनर्व्याख्या की बात करते है तो उनकी कुर्सी खतरे में नजर आती है और वोट बैंक की राजनीती उन्हें अपना सबसे बड़ा दुश्मन समझती है.
इस बात की जरूरत इसलिए भी ज्यादा हो गयी है कि क़ानून की व्याख्या मीडिया से लेकर हर कोई ऐरा गैरा नत्थू खैरा करने लगा है और किशोर वय से लेकर युवा और बुजुर्ग भी न्याय का मख़ौल उड़ाने लगे है, साथ ही "अब क़ानून में दम नहीं और सब बिके हुए है" जैसे वाक्य भारत की फिजाओं में गूंजने लगे है जोकि किसी भी राजतंत्र या लोकतंत्र के लिए घातक है. यह बहुत ही कठिन विपदा का समय है जब संवैधानिक पदों पर आसीन लोग (राबर्ट वाड्रा, केजरीवाल, जेटली, सोनिया, आदि योगीनाथ, उमा, निहालचंद्र, अभिषेक मनु सिंघवी या कपिल सिब्बल) क़ानून को जेब में रखकर चलते है और सीबीआई, आईबी या न्यायपालिकाओं का मनमाना उपयोग करते है. इस सबमे उद्योगपतियों का भी कानून का मनमर्जी से उपयोग बहुत ही शर्मनाक है, जो अपने फायदे के लिए और पूंजी को हथियाने के लिए किस तरह से वकील और व्यवस्था को इस्तेमाल करते है.
आज पूरे दिन की बहस में मीडिया के प्रतिनिधियों ने भी गजब का हूनर दर्शाया और जतला दिया कि वे न्यायाधीशों से बड़े कानूनविद है. ये मीडियाकर्मी सब बता देते है, दो चार ने तो 20 फ़रवरी का फैसला भी सुना दिया और दो चार एंकर ने तो पूरे संविधान को ही घोट रखा हो मानो, ऊपर से पैनलिस्ट भी खतरनाक ज्ञानी है. ये पैनलिस्ट जो एक विचारधारा लेकर चैनलों के मंच पर आते है और रोज कमोबेश इस कर्म को अपना धंधा बना चुके ये लोग हर विषय में सिद्धहस्त है और सर्व ज्ञानी है. वे इस तरह से बंद कमरों में क्रान्ति की बात करते है मानो वे सर्वेसर्वा हो देश के. यदि मीडिया इतना ही सशक्त है तो यार काहे कोर्ट कचहरी में हम आम लोग समय बर्बाद कर रहे है, सीधे चैनल में चले जाए और हाथो हाथ इन सब महानुभावों से न्याय ले लें.
मुझे लगता है कि नया रचना है तो विध्वंस जरूरी है और इसके लिए यदि मोदी सरकार देश के रिटायर्ड जज साहेबान और अनुभवी वकीलों की अगुवाई में ये रद्द बदल करती है तो हमे मिलकर कम से कम आने वाले भारत के लिए एक स्वच्छ, पारदर्शी और सामान आचार संहिता वाली क़ानून व्यवस्था का स्वागत करने लिए समर्पण करना चाहिए और धैर्य रखना चाहिए।
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