मप्र के भोपाल में उत्सवों की श्रृंखला में लों फ़िर आ गया एक और ३ दिसंबर पर ढाक के तीन पांत......................फ़िर अखबार रंगे जायेंगे मृतात्माओं को याद किया जाएगा, एंडरसन का पुतला फूँका जाएगा.........सरकार को गाली दी जायेगी, रैली धरना और प्रदर्शन , मेरे एक मित्र है सुशील जो बेहद ईमानदार से कह रहे थे कि वे कही भी रहे पर ३ दिसंबर को भोपाल में रहते है हालांकि उन्होंने सदिच्छा से कहा था आज तक वे विज्ञान के "जन विज्ञान वाले मार्ग" पर चल रहे है एक साधू सा जीवन जीने वाले सुशील भाई की प्रतिबद्धता पर सवाल ही नहीं है परन्तु जो लोग ३ दिसंबर के नाम पर धंधा कर रहे है १९८४ से उनका क्या....... मुझे लगता है कि अब भोपाल की छबि बदलने की जरुरत है और गैस पीड़ितों को जो भी अनुदान मिला या पेंशन मिल रही है वो....पर्याप्त है जिन्हें मरना था वो मर खप चुके है, रिश्तेदारों के आंसू भी सूख चुके है अब हो रही है तो सिर्फ राजनीती और अनुदान प्राप्त करने की लंबी गहरी चालें................बस यही सच है इसलिए मुझे लगता है कि अब आंसूओं को पोछ कर (वैसे भी आंसू सूख चुके है और पुतलियाँ पथरा गई है) एक नए कल की ओर देखा जाये.............मै जानता हूँ कि मै क्या कह रहा हूँ पर सच यही है. बंद करें गैस पीड़ितों की भावनाओं को भडकाना और उन्हें बार-बार कुरेदना और अपनी रोटी की तलाश इस सुराख में ढूंढना ............यहाँ के कुछ लोग और एनजीओ इसी भोपाल में इन्ही गैस पीड़ितों के नाम पर चल-अचल संपत्ति बना लिए है, कमा लिए है बड़े- बड़े अंतर्राष्ट्रीय इनाम, अनुदान, किताबें, नाम, यश और चढावें.....सब उनके खाते में है इससे हम सब वाकिफ है............और अंततोगत्वा हुआ क्या सुप्रीम कोर्ट ने भी पन्ने उलट दिए है और सब खत्म हो गया है बेहतर है सब भूलकर एक नए भोपाल और नए कल की शुरुवात करें जहां कोई एमआईसी गैस नहीं होगी, ना यूनियन कार्बाईड, ना एंडरसन, ना अर्जुन सिंह, ना राजीव गांधी... सब इतिहास के काल में काल कलवित हो गये है.... पानी का उद्दाम वेग थम गया है और एक नया सूरज निकल रहा है ...........बंद करो यह सब घटिया राजनीती और गैस पीड़ित लोगों की भावनाओं का इस्तेमाल.....
आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत...
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