पानी-१
आलोकधन्वा, प्रभात की
पानी पर कविताएँ
पुल बन गई हैं। पूछूँ यदि तुमसे
तो तुम कहोगे नाँव। आजकल बहुत ऊपर से
निकल जाती हैं रेलगाड़ियाँ। हवा बीच ही भख
लेती है-
गर्भवती का वमन
तर्पण का कलदार
तुम्हारे घड़े में कितना जल है, सुनो
तुम्हारे लोटे में कितना?
मेरे एक अध्यापक है संदीप नाईक
होशंगाबाद में नर्मदा के घाट रहते थे पहले
सुनते है- एक उलाँक**जल में रह रहकर
कोमल पड़ गया था जिसका पाट
माट्साब के पाँव धरते ही
हिलसा हो गई थी।
मानोगे क्यों तुम! गल्पकला कहोगे
किन्तु यह
पानी जितना ही सत्य है बंधु।
**उलाँक- नौका का एक प्रकार।
पानी-२
भीतर जैसे मंूगे की बेल
फल गई हो।
इतना भर गया था
कवि के फेफड़ों में जल, रोज़ अस्पताल
में नली से निकलाने जाते स्कूटर पर।
ग्रीष्म के दिवस, शिप्रा बस गोड़डुबान
लोटा भर पानी भी स्वप्नवत् लगता था
फिर एक समय
जल के सभी लक्षण प्रकट हुए कवि पर-
मत्स्य, नौका, कलश, धान
और पिपासा
एक समय कवि अंजुरि भर जल
रह गया जग में।
पानी-३
कुल्ले के जल की मार से जब
मुच गई थी आँखें- उसी टाईम तुम
मुझे सबसे अच्छे लगी थी। खारे जल की
पुतली- आँखे, जिह्वा, काँख, योनि-सब में
केवल अाब अौर नमक ही था; फिर क्यों कोई
कवि मुझसे पूछे बिना तुम्हें नदी कह दे!
समुद्र में बढ़ी ककड़ी से अधिक नहीं हो तुम
कुछ। समुद्र में देर तक नहाने पर त्वचा में
जो खिंचाव, खारापन, और नींद आती है-
उससे अधिक क्या हैं मन में!
प्लीज़ क्वां़तम-थ्योरी और प्रेम में कोई पुलिया
मत जोड़ो तुम फ़िज़िक्स की छात्रा।
तुम्हारी उँगलियों के बीच जो
नमक और स्तनों के नीचे जो स्वेद की
गंध है- उससे तो कम ही गंधा़ता है
बेचारा हवा की बेल पर ककड़ी सा पकता समुद्र।
तेल-१
सोनागाछी की एक बालिका वय-१५
को लेकर मैं गया था हुगली।
वासना में इतना अंधा हो जाता
है कोई जबकि पढ़ता था दास काॅपितल।
₹४० फी घंटा भाव था उसका।
नाँव में दारू और सेक्स के कारण
केवट के सम्मुख ही उसके ब्लाउज की
आस़्तीन नीचे कर काट लिया मैंने उसका कंधा।
फिर पूछा नाम। वह बोली 'तरनि'।
कंधे का स्वाद सिंघाड़े जैसा लगा। कलाई खींच
उसे मैंने चूमना चाहा। वह चिढ़ गई।
रोने लगी।
उसके होंठ ताल-मखाने लगे दाँतों को।
वासना में कोई कितना अंधा हो जाता
जब हम नाँव में थे
तो तुम क्या तुम थे मैं क्या मैं था
हवा कुरण्ट** जितनी भारी थी
कोई सरसों के तेल में नैन*** तलता था।
**कुरण्ट- पत्थर का एक प्रकार।
***नैन- मीठे जल की एक मछली का प्रकार।
आलोकधन्वा, प्रभात की
पानी पर कविताएँ
पुल बन गई हैं। पूछूँ यदि तुमसे
तो तुम कहोगे नाँव। आजकल बहुत ऊपर से
निकल जाती हैं रेलगाड़ियाँ। हवा बीच ही भख
लेती है-
गर्भवती का वमन
तर्पण का कलदार
तुम्हारे घड़े में कितना जल है, सुनो
तुम्हारे लोटे में कितना?
मेरे एक अध्यापक है संदीप नाईक
होशंगाबाद में नर्मदा के घाट रहते थे पहले
सुनते है- एक उलाँक**जल में रह रहकर
कोमल पड़ गया था जिसका पाट
माट्साब के पाँव धरते ही
हिलसा हो गई थी।
मानोगे क्यों तुम! गल्पकला कहोगे
किन्तु यह
पानी जितना ही सत्य है बंधु।
**उलाँक- नौका का एक प्रकार।
पानी-२
भीतर जैसे मंूगे की बेल
फल गई हो।
इतना भर गया था
कवि के फेफड़ों में जल, रोज़ अस्पताल
में नली से निकलाने जाते स्कूटर पर।
ग्रीष्म के दिवस, शिप्रा बस गोड़डुबान
लोटा भर पानी भी स्वप्नवत् लगता था
फिर एक समय
जल के सभी लक्षण प्रकट हुए कवि पर-
मत्स्य, नौका, कलश, धान
और पिपासा
एक समय कवि अंजुरि भर जल
रह गया जग में।
पानी-३
कुल्ले के जल की मार से जब
मुच गई थी आँखें- उसी टाईम तुम
मुझे सबसे अच्छे लगी थी। खारे जल की
पुतली- आँखे, जिह्वा, काँख, योनि-सब में
केवल अाब अौर नमक ही था; फिर क्यों कोई
कवि मुझसे पूछे बिना तुम्हें नदी कह दे!
समुद्र में बढ़ी ककड़ी से अधिक नहीं हो तुम
कुछ। समुद्र में देर तक नहाने पर त्वचा में
जो खिंचाव, खारापन, और नींद आती है-
उससे अधिक क्या हैं मन में!
प्लीज़ क्वां़तम-थ्योरी और प्रेम में कोई पुलिया
मत जोड़ो तुम फ़िज़िक्स की छात्रा।
तुम्हारी उँगलियों के बीच जो
नमक और स्तनों के नीचे जो स्वेद की
गंध है- उससे तो कम ही गंधा़ता है
बेचारा हवा की बेल पर ककड़ी सा पकता समुद्र।
तेल-१
सोनागाछी की एक बालिका वय-१५
को लेकर मैं गया था हुगली।
वासना में इतना अंधा हो जाता
है कोई जबकि पढ़ता था दास काॅपितल।
₹४० फी घंटा भाव था उसका।
नाँव में दारू और सेक्स के कारण
केवट के सम्मुख ही उसके ब्लाउज की
आस़्तीन नीचे कर काट लिया मैंने उसका कंधा।
फिर पूछा नाम। वह बोली 'तरनि'।
कंधे का स्वाद सिंघाड़े जैसा लगा। कलाई खींच
उसे मैंने चूमना चाहा। वह चिढ़ गई।
रोने लगी।
उसके होंठ ताल-मखाने लगे दाँतों को।
वासना में कोई कितना अंधा हो जाता
जब हम नाँव में थे
तो तुम क्या तुम थे मैं क्या मैं था
हवा कुरण्ट** जितनी भारी थी
कोई सरसों के तेल में नैन*** तलता था।
**कुरण्ट- पत्थर का एक प्रकार।
***नैन- मीठे जल की एक मछली का प्रकार।
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