* मैं जब अकेले में सोचता हूँ - यह मैं हूँ, यह क्षण मेरा है, यह मेरी जगह है; कोई मुझे इससे नहीं छीन सकता... तो एक गहरी राहत और खुशी होती है - मैं स्वतंत्र हूँ और पूरी तरह अपनी स्वतंत्रता चख सकता हूँ. किंतु जिस दिन कोई ऎसा क्षण आएगा, जब मैं यह सोच सकूंगा - कि न यह मैं हूँ, न यह क्षण मेरा है, न मेरी अपनी कोई जगह है, न मैं जीवित हूँ, न मनुष्य हूँ... इसलिए जो नहीं हूँ, उसे कौन मुझसे छीनकर ले जा सकता है? जिस दिन मैं यह सोचूँगा, उस दिन मैं मुक्त हो जाऊँगा, अपनी स्वतंत्रता से मुक्त, जो अंतिम ग़ुलामी है. मुक्ति और स्वतंत्रता में कितना महान अंतर है...
* हमें समय के गुजरने के साथ-साथ अपने लगावों और वासनाओं को उसी तरह छोड़ते चलना चाहिए जैसे साँप अपनी केंचुल छोड़ता है और पेड़ अपने पत्तों और फलों का बोझ... जहाँ पहले प्रेम की पीड़ा वास करती थी, वहाँ सिर्फ़ खाली गुफा होनी चाहिए, जिसे समय आने पर संन्यासी और जानवर छोड़कर चले जाते हैं...
* हमें समय के गुजरने के साथ-साथ अपने लगावों और वासनाओं को उसी तरह छोड़ते चलना चाहिए जैसे साँप अपनी केंचुल छोड़ता है और पेड़ अपने पत्तों और फलों का बोझ... जहाँ पहले प्रेम की पीड़ा वास करती थी, वहाँ सिर्फ़ खाली गुफा होनी चाहिए, जिसे समय आने पर संन्यासी और जानवर छोड़कर चले जाते हैं...
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