Skip to main content

जीने में मृत्यु की राहत, नहीं 'मृत्यु' एक अवधारणा है, निरा एक विचार, जबकि विस्मृति में जाना मरना है; हम मरने को अनुभूत कर सकते हैं, मृत्यु को नहीं; इसीलिए ध्यान इतना रिलीफ देता है... हम ज़िन्दगी के जबड़े से कुछ इस तरह निकल आते हैं, जैसे कबूतर बिल्ली के मुहँ से... अगर इसकी कल्पना की जा सके...
* आकाश में उड़ती हुई चीलें उन्हें निहारती हैं - एक मांसल झपट्टे में सब कुछ ले जाने को आतुर - प्रेम, चाहना, रात के चुम्बन, एक आकांक्षा - अपनी सजीव, विराट, मांसल तृष्णा में प्रेम और मृत्यु कितने पास-पास सरक आते हैं...
* अगर आदत जैसी कोई चीज़ नहीं होती, तब ज़िन्दगी उन सबको अनिवार्यत: सुन्दर जान पड़ती, जिन्हें मृत्यु कभी भी घेर सकती है - यानि उन सबको, जिन्हें हम मानवजाति कहते हैं...
* दुख: - अंतहीन डूबने का ऎन्द्रिक बोध, साँस न ले पाने की असमर्थता, जबकि हवा चारो तरफ है, जीने की कोशिश में तुम्हारी मदद करती हुई... तुम खतरे की निशानी के पार जा चुके हो, और अब वापसी नहीं है...
* हम अपने को सिर्फ़ अपनी सम्भावनाओं की कसौटी पर नाप सकते हैं. जिसने अपनी सम्भावनाओं को आख़िरी बूँद तक निचोड़ लिया हो, उसे मृत्यु के क्षण कोई चिंता नहीं करनी चाहिए...
* मरने के बाद आदमी अपने से छूटकर कितने लोगों के बीच बँट जाता है...
* मृत्यु एक घटना है, वह सिर्फ़ बर्फ़ की तरह सुन्न कर देती है. पीड़ा बाद में आती है, काल की तपन में बूँद बूँद पिघलती हुई...
* आदमी जीता एक जगह पर है, पर मरने के बाद वह हर व्यक्ति के भीतर अपनी जगह बना लेता है. उसका होना धुंधला पड़ता जाता है, उसका न होना उजला होता जाता है, इतना उजला और साफ लगता है कि वह हम सबके बीच बैठा है, एक जैसा नहीं बल्कि अलग-अलग. आग में जलनेवाला शव एक ही रहता है, पर हम में से हर कोई अपने - अपने साहिब जी को उसमें जलता हुआ देख रहा था...
* इससे ज्यादा भयानक बात क्या हो सकती है कि कोई आदमी अकेलेपन के अजाने प्रदेश की ओर घिसटता जा रहा हो और उसके साथ कोई न हो...
* बाहर जो कब्रें दिखाई देती हैं, वे हमारे भीतर के मृत हैं. हम जीवन भर उनके बोलने की प्रतीक्षा में इधर से उधर भटकते रहते हैं, बिना यह जाने कि वे अपने उत्तर पहले ही हमारे पास छोड़ गए हैं...
* कैसी विचित्र बात है, सुखी दिनों में हमें अनिष्ट की छाया सबसे साफ दिखाई देती है, जैसे हमें विश्वास न हो कि हम सुख के लिए बने हैं. हम उसे छूते हुए भी डरते हैं कि कहीं हमारे स्पर्श से वह मैला न हो जाए और इस डर से उसे भी खो देते हैं, जो विधाता ने हमारे हिस्से के लिए रखा था. दुख से बचना मुश्किल है, पर सुख को खो देना कितना आसान है...
* मृत्यु - एकमात्र चीज़ जिसके बारे में हम निश्चिंत होते हैं. क्या वह भी आदमी को आख़री मौके पर धोखा दे सकती है? हम यह भी नहीं जान पाते, वह अपने साथ किसे ले गई है... क्या उसे जिसे हम जानते थे या किसी और को, जिसे जानने की कभी मुहलत नहीं मिली...
* मृत्यु कोई समस्या नहीं है, अगर तुमने अपनी ज़िन्दगी शुरू न की हो...
* जितनी आसानी से युवा लोग आत्महत्या कर लेते हैं, बूढ़े लोग नहीं... वे जीने के इतने अभ्यस्त हो चुके होते हैं कि उससे बाहर निकलना दूभर जान पड़ता है. मौत से ज्यादा ख़ौफ़नाक यह बात है कि तुम कभी मरोगे नहीं, हमेशा के लिए जीते जाओगे! है न भयानक चीज़...?

Comments

Popular posts from this blog

हमें सत्य के शिवालो की और ले चलो

आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत

संसद तेली का वह घानी है जिसमें आधा तेल है आधा पानी है

मुझसे कहा गया कि सँसद देश को प्रतिम्बित करने वाला दर्पण है जनता को जनता के विचारों का नैतिक समर्पण है लेकिन क्या यह सच है या यह सच है कि अपने यहाँ संसद तेली का वह घानी है जिसमें आधा तेल है आधा पानी है और यदि यह सच नहीं है तो यहाँ एक ईमानदार आदमी को अपने ईमानदारी का मलाल क्यों है जिसने सत्य कह दिया है उसका बूरा हाल क्यों है ॥ -धूमिल

चम्पा तुझमे तीन गुण - रूप रंग और बास

शिवानी (प्रसिद्द पत्रकार सुश्री मृणाल पांडेय जी की माताजी)  ने अपने उपन्यास "शमशान चम्पा" में एक जिक्र किया है चम्पा तुझमे तीन गुण - रूप रंग और बास अवगुण तुझमे एक है भ्रमर ना आवें पास.    बहुत सालों तक वो परेशान होती रही कि आखिर चम्पा के पेड़ पर भंवरा क्यों नहीं आता......( वानस्पतिक रूप से चम्पा के फूलों पर भंवरा नहीं आता और इनमे नैसर्गिक परागण होता है) मै अक्सर अपनी एक मित्र को छेड़ा करता था कमोबेश रोज.......एक दिन उज्जैन के जिला शिक्षा केन्द्र में सुबह की बात होगी मैंने अपनी मित्र को फ़िर यही कहा.चम्पा तुझमे तीन गुण.............. तो एक शिक्षक महाशय से रहा नहीं गया और बोले कि क्या आप जानते है कि ऐसा क्यों है ? मैंने और मेरी मित्र ने कहा कि नहीं तो वे बोले......... चम्पा वरणी राधिका, भ्रमर कृष्ण का दास  यही कारण अवगुण भया,  भ्रमर ना आवें पास.    यह अदभुत उत्तर था दिमाग एकदम से सन्न रह गया मैंने आकर शिवानी जी को एक पत्र लिखा और कहा कि हमारे मालवे में इसका यह उत्तर है. शिवानी जी का पोस्ट कार्ड आया कि "'संदीप, जिस सवाल का मै सालों से उत्तर खोज रही थी वह तुमने बहुत ही