तसवीर अपनी ग़लत तो नहीं। शायद कि ग़लत है। मैं कोई बेहद शरीफ़, बेहद सच्चा, अच्छा इन्सान तो नहीं। न ईश्वर को ही उस तौर से मानता हूँ , मगर मध्यम वर्ग का ईश्वर मेरा भी है, भारत के मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी का ईश्वर : वही शायद कहीं मेरी-तुम्हारी सीमाएं करीबतरीन करता है। अगर्चे वह एक खामोशी, एक प्रार्थना का सुकून है जो चुपचाप मुझे वहाँ बाँध-सा देता है। अगर्चे कोई चीज़ बज़ाहिर मुझे बांधती नहीं : सिवाय शायद कला की सच्चाई के। ज़िंदगी को मैं शायद उसी के सहारे, उसी की परतों में टटोलता, समझता, झेलता चला आ रहा हूँ। ज्यों-त्यों। बहरकैफ़।
-शमशेर
-शमशेर
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