शालिनी ताई मोघे ना मात्र इंदौर की वरन देश भर की विदुषी महिला थी और उस जमाने से वो काम कर रही थी जब महिलाओं को बाहर निकालना लगभग मना था. पिछले ३० बरसो से में उनके साथ जुडा था जब भी इंदौर जाता उनसे मिलकर आता था, जब भी चढ़ाव पर से उतरने के लिए में हाथ पकडता तो मना कर देती थी कहती थी अरे में कोइ बूढी थोड़े ही हूँ, कल झाबुआ जाना है फ़िर भोपाल जाना है. बाल निकेतन के पूरे परिसर में वो सुबह से देर शाम तक उपस्थित रहती थी. लगभग दो बरस पूर्व में आंगवाड़ी के सन्दर्भ में एक अध्ययन के सिलसिले में लगातार मिलता रहा था, जो बाद में छापा भी था, तब टाई को उनके सरोकारों को गहराई से समझने का मौका मिला था. ताई ने लाहौर में रहकर मेडम मारिया मोंटेसरी से बाल सुलभ शिक्षा के गुर सीखकर आई थी और फ़िर आज़ादी से पूर्व भारत में शिक्षा का काम आरम्भ किया था आज का बाल निकेतन उनके स्वप्नों की एक मात्र झलक है उनका असली काम दूरदराज के क्षेत्रो में है आदिवासियों के लिए और लडकियों के लिए उनका योगदान अतुल्य है. आज जब विशाल ने यह खबर लिखी है तो में बहुत टूट गया हूँ अंदर से और लग रहा है कि मुझे एक और बड़ा धक्का लगा है अब शिक्षा और जमीनी हकीकतो की बात करने वाला कौन रह गया है मालवा में ? ताई नेताओं से लेकर अधिकारियों को जमकर लताडती थी और क्लास लेती थी.......ऐसी ताई जो हमेशा मुझे और कल्याणी डीके (श्री अरुण डीके की बेटी ) को समझाती रहती थी कि कुछ करो रे ढंग का करो हमारी ताई जितनी महान थी उतनी ही सरल और सहज थी कभी भी उनके दफ्तर में ताम झाम नहीं थे एक पुराणी सी कुर्सी और टेबल बस उसी में उनकी जिंदगी निकल गयी, आज समाज सेवा के नाम पर दूकान चलाने वालो के दफ्तर में कितने ताम झाम होते है. पूरी उम्र भर शिक्षा के लिए लडने वालो में मेरी ताई का चला जाना एक बड़ा शून्य बना गया है और मेरी शब्दों की सीमा भी आ गयी है पता नहीं अब शिक्षा पर बातचीत करने वाला कौन है और आदिवासियों के लिए काम करने वाला?
ताई को श्रद्धा सुमन और इस बात के साथ कि ताई आप हमेशा हमारे दिलो में रहोगी और बाल निकेतन के आँगन में महकती रहोगी.
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