छोटे से कस्बे का घटिया सा आदमी था घिस घिस कर लिखना सीख गया तो पत्रकार बनने के मुगालते हो गए और फ़िर कालान्तर में वो स्वयम्भू बुद्धिजीवी हो गया काम धाम कुछ नहीं बस कोपी पेस्ट करके छपवाना और हर साल पुरस्कार बटोरना यही जिंदगी का मकसद रह गया था शादी भी की और फ़िर दो मकान और फ़िर दूकान, आजकल वो कंसलटेंसी का धंधा चला रहा है पुरस्कार की भूख अभी मिटी नहीं है हर कही दिख जाएगा मंगतो की तरह (एनजीओ पुराण 110)
आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत...
Comments