मृत्युदंड
मेरे दोनों हाथ बंधे हैं
जल्लाद ढंकता है सिर पर काला कपडा
थोड़ी ही देर में दी जाएगी फांसी
इस अहद में जुर्म था देखना
जनतंत्र का स्वप्न
जो मैंने देखा
मेरी कविता दुखों की खान है
वहाँ दर्द की लिपियाँ हैं अपाठ्य
फिर भी अगर पुनः आऊं धरती पर
फिर लूँ जन्म
तुम फिर मुझे मिलना
ओ मेरी कविता
तुम फिर होना
ओ मेरे मन !
जो कुरुक्षेत्र पार करते हैं
बिना यात्राओं के जाने नहीं जा सकते रास्ते
ये उसी के हैं जो इन्हें तय करता है
चाँद उसी का है जो उस तक पहुँचता है
और समुद्र उन मल्लाहों का जो उसका
सीना फाड़कर उसके गर्भ से
मछली और मूंगा निकालते हैं
वे लोग महान हैं जो जीते नहीं ,लड़ते हैं
जो पहली सांस से आखिरी सांस का कुरुक्षेत्र
लहुलुहान होकर भी जूझते हुए पार करते हैं
वे रास्ते महान हैं जो पत्थरों से भरे हैं
मगर जो हमें सूरजमुखी के खेतों तक ले जाते हैं
वह सांस महान है
जिसमें जनपद की महक है
और वह ह्रदय खरबों गुना महान
जिसमें जनता के दुःख हैं
धरती को स्वप्न की तरह देखने वाली आँख
और लोकगीत की तरह गाने वाली आवाज़ से ही
सुबह होती है
और परिंदे पहली उड़ान भरते हैं !
एकांत श्रीवास्तव के कविता संग्रह बीज से फूल तक से .
आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत...
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