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मन की गांठे

बेहद भीरू किस्म का इंसान था वो, पता नहीं इंसान भी था या नहीं या सिर्फ नपुंसक, एक भीड़ तंत्र का जरूरी हिस्सा बनकर रहता था और जब घबरा जाता तो साथ माँगने लगता कभी किसी का साथ कभी किसी का, बस युही उसकी जिंदगी दोस्तों के भरोसे चल रही थी दो चार पाले हुए लोग थे जिन्हें वो रोटी के टुकड़े डालता और वो भों-भों करते रहते ये कुत्ते भी हड्डी की तलाश में दौडते रहते थे और कुछ भी कर बटोर लाते थे बस इसी साथ और मांगे हुए कागजो के टुकडो के भरोसे जिंदगी चल रही थी अपने मोहल्ले में, बाहर तो कहते है फटटू थे(मन की गांठे)

Comments

Utkarsh said…
sahi likha he dada..!!
loved the style of writing.

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