बेहद भीरू किस्म का इंसान था वो, पता नहीं इंसान भी था या नहीं या सिर्फ नपुंसक, एक भीड़ तंत्र का जरूरी हिस्सा बनकर रहता था और जब घबरा जाता तो साथ माँगने लगता कभी किसी का साथ कभी किसी का, बस युही उसकी जिंदगी दोस्तों के भरोसे चल रही थी दो चार पाले हुए लोग थे जिन्हें वो रोटी के टुकड़े डालता और वो भों-भों करते रहते ये कुत्ते भी हड्डी की तलाश में दौडते रहते थे और कुछ भी कर बटोर लाते थे बस इसी साथ और मांगे हुए कागजो के टुकडो के भरोसे जिंदगी चल रही थी अपने मोहल्ले में, बाहर तो कहते है फटटू थे(मन की गांठे)
आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत...
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loved the style of writing.