(सन्दर्भ -उज्जैन की एक शाम- यार दोस्त के नाम १७ जुलाई २०११ कालिदास अकादमी )
सीहोर में था फेसबुक पर अशोक ने सन्देश दिया कि में उज्जैन में हूँ -कल परसों, मिल लो और इसकी पुरानी आदत है कि ये लोगो को टेस्ट करता है जैसे दिल्ली जाना नहीं पर लिखेगा दिल्ली में हूँ बुला लो जिसको बुलाना हो.....सो मैंने पूछा अपने बहादुर से! साला संसार में एक ही बहादुर है जो नौकरी के साथ कविता भी लिखता है ढेर सारे लोगो से बातचीत और फ़िर देवास में आयोजन आसपास के क्षेत्र में जाना और सबकी लड़ाई सुलझाना, यह सब बहादुरी के ही काम बाकी कामो का चर्चा फ़िर कभी, बहरहाल मैंने पूछा कि क्या माजरा है उसने बताया कि उज्जैन में रमेश दवे का अमृत महोत्सव है और निरंजन क्षोत्रिय कार्यक्रम कर रहे है बारह युवा कवियों की कविताएं, जो इन्होने ने समापवर्तन में छापी है, का विमोचन भी है सब लोग आयेंगे तो आ जाओ, मैंने सोचा चलो अपने बेटू से भी मिल लूंगा और सब दोस्तों से भी मिलना हो जाएगा बस यही सोचकर देवास चला गया और बस दोपहर में बहादुर तीन बजे दिनेश पटेल के साथ हाजिर, में, दिनेश, अपूर्व और बहादुर चल पडे उज्जैन की ओर.
जब उज्जैन पंहुचे तो अशोक ने कहा कि सीधे होटल ही आ जाओ आज सुबह तो वहाँ सिर्फ होम हवन ही हो रहा था और हम भाग आये.....श्रीमाया उज्जैन के फ्रीगंज का भीडभरा इलाका और सुन्दर चौड़ी सडके, याद आया एक बार नलिनी सिंह के साथ एक कार्यक्रम की शूटिंग कर रहा था तो नलिनी ने इसे ठन्डा शहर कहा था तब आचार्य श्रीनिवास रथ, अशोक वक्त, सतीश दवे, हफीज आदि मित्रों ने बहुत आपत्ति उठाई थी और नलिनी को जी बाहर के कोसा था. उज्जैन संस्कृति का शहर रहा है मैंने अपनी एम् ऐ अंगरेजी की पढाई यही से की है और जिले में विज्ञान शिक्षण का भी बहुत काम किया है इस मालवा के शहर से मेरा गहरा नाता रहा है.
जब अशोक के कमरा नंबर २०२ में घुसे तो एक छोटा सा प्यारा सा एक और शख्स मौजूद था अशोक ने परिचय कराया कि यह अमित मनोज है हरियाणा से आया है और कवि है बस थोड़ी सी बातचीत के बाद वह भी घुलमिल गया हिन्दी में कवि होना मेरे लिए तो फख्र की बात है अमित कुरूक्षेत्र से विवि से पीएच डी कर रहा है और बहुत ही सामयिक विषय है कि बाजारवाद के दौर में हिंदी कहानियों में किसानो की स्थिति उसने बताया कि उसने २१० कहानियों का चयन किया है और उसे १७० कहानिया तो १९९० के बाद मिली है, यह बड़ी बात थी कि आज अधिकाँश लोग यह मानते है कि प्रेमचंद के बाद किसी ने किसानो की सुध नहीं ली. अमित का शोध ठीक इसके विपरीत बात कहता है. अच्छा कवि है हरियाणा साहित्य अकादमी से उसका एक संग्रह आया है “कठिन समय में “ उसने बहुत प्यार के साथ मुझे इसकी प्रति भेंट की, अच्छा लगा कि अभी भी हिन्दी में बहुत संभावनाएं बाकी है.
अशोक से पुरानी गपशप कहानी, कविता, मार्क्सवाद, दोस्त यार, फेसबुक, इंटरनेट, प्रकाशन दिल्ली ग्वालियर और भोपाल और फ़िर कुछ कार्यक्रम कविता समय और उसपर उसकी संयोजकीय टिप्पणियाँ और प्रशंसा के पूल और निंदा की नदिया....समय कब धीरे धीरे गुजर रहा था पता ही नहीं चला. अचानक हमने कालिदास अकादमी जाने की सोचा और फट से उठाकर चल दिए वहा राजेश सक्सेना, मुकेश बिजौले, अक्षय आमेरिया, नीलोत्पल जीतेंद्र चौहान भी मिल गए. कार्यक्रम तो बहुत ही अजीब था कोइ टिप्पणी नहीं करूँगा पर रमेश दवे जो पता नहीं क्यों प्रोफ़ेसर हो गए भगवान जाने किस विवि के थे या खुद ही ने लिखना शुरू कर दिया, एक प्राथमिक शाला के अध्यापक का यह अपराध बोध बहुत ही खराब होता है, ऐसे ही एक और मित्र है दामोदर जैन तीकम्गढ़ से जुगाड करके भोपाल में बैठे है अपने आप को जूनियर व्याख्याता कहते है जबकि है वो प्राथमिक के मास्टर पर अपराध बोध उन्हें सोने नहीं देता वो तो और भी हिट है यदि कोइ उन्हें “डाक साब” कहता है तो मना भी नहीं करते. खैर मंच पर विलास गुप्ते, विजय बहादुर सिंह, रमेश दवे और कोइ एक सज्जन बैठे थे और माइक पर सूर्यकांत नागर का लंबा प्रलाप जारी था जह उन्होंने रमेश जी को पता नहीं क्या क्या बना दिया और फ़िर चापलूसी के भी हद है, सूर्यकांत उवाच सुनने के लिए हाल में बमुश्किल १०-१२ लोग बैठे होंगे वो भी मालवा था तो लाज शर्म के मारे आ गए और ये कवि जिन्हें निरंजन ने किराया भाड़े का होटल में रूकवाने का भरोसा दे दिया था किताब के रूप में कवितायें एक बढ़िया काम था ही और फ़िर अशोक, अमित, प्रदीप और जीतेंद्र जैसे सहज लोग बगैर किसी लालच और छलावे के आ जाते है दिल से, यही सहजपन इन्हें ऊर्जा भी देता है और एक बड़े नेटवर्क से जोड़े रखता है आज इन सबका एक बड़ा गेंग है और ये गेंग छोटे बड़े ध्रंधर लोगो को सहजता से ही निपटा देता है चाहे वो कविता का अखाड़ा हो या बौद्धिक विमर्श या विचारधारा का मुआमला हो. ये बड़े प्यार से सबका काम तमाम कर लाइन पर ले आते है और फ़िर किसी की मजाल कि कुछ बोल दे बहादुर भी बहुत प्यार से अपनी अस्वीकृति रखता है इस साल नईम समारोह में नामवर जी के लिए उसका रूख बड़ा सख्त था और समीरा का पक्ष बहादुर के कारण ही कमजोर साबित हुआ और फ़िर देवास के किसी रचनाकार ने तो नहीं मदद की हाँ दूसरे गुर्गे जरूर पहुंचे थे मदद के लिए.........खैर. थोड़ी देर तक हम सब सुनते रहे फ़िर एक एक करके बाहर आ गए और अंदर रमेश दवे की अमर कथा का प्रसारण जारी था. मुकेश बिजौले की कविता पोस्टर प्रदर्शनी लगी थी श्रीराम दवे की कविताएं और इन पुरस्कृत कवियों की शगुन जैसी एक एक कविता-अशोक दुबे की लेखनी और मुकेश के रेखांकन वाह क्या संजोग था.
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