पिछले
एक डेढ़ साल में मै इतना हैरान परेशान रहा कि जीवन में कभी नहीं रहा और इस
सबमे मजेदार यह था कि किन्ही अपने बहुत करीबी दोस्तों ने ये सिला दिया,
दोस्ती का अच्छे सब्जबाग दिखाकर जीवन को तहस नहस कर दिया, हालांकि कुछ
दोस्तों ने चेताया भी था पर लगा कि एक बार क्यों ना विश्वास कर ले पर सबने
छल किया इस छोटी सी अवधि में तीन शहर में डेरा उठाये घूमने और हर जगह नए
सिरे से चूल्हा बसाने के लिए,सामान ढोना, कागजी कार्यवाही और फ़िर गैस आदि
के झंझट...... बहुत जिगरा लगता है गुरु......कहना और भुगतना बहुत् मुश्किल
है. शुक्र है दोस्तों की भीड़ में कुछ अपने थे और फ़िर परिवार के लोगों ने इस
नालायकी भरे फैसले में साथ दिया वरना टूटा तो पहले से ही था साथ ना मिलता
तो खत्म ही हो जाता........बात इसलिए आज यहाँ खुलकर लिख रहा हूँ कि एक
मित्र से अभी बात हो रही थी जो एक बड़ा फैसला लेकर बड़ा नाम कीर्ति और यश की
पताकाएं एवं बड़ा बैनर वो भी अखबारी दुनिया का, छोड़कर नया कुछ करने जा रहे
है उन्होंने पूछ लिया कि क्या यह सब आसान है........मै क्या जवाब देता. पर
भगवान ना करे कि उन्हें मेरे जैसे
कमीने
दोस्त मिल जाये जो जीवन बर्बाद कर दे लोक लुभावन नारों से और वादों से.
आजतक किसी के बुराई और बद दुआओं का काम नहीं किया है पर ईद की पूर्व शाम पर
उस दोस्त को कोसने को जी चाहता है जिसने एक भले आदमी अकेले आदमी को तीन
तीन शहरों में सामान ढोने और हर बार नए सिरे से बसने का दर्द दिया इससे
विस्थापन की पीड़ा और उन लोगो की तकलीफ समझ आई जो हर तीन चार माह में चल
देते है सर पर अपने मैले कुचेले सामान और दुःख की गठिया का दर्द लेकर नए
ठिकानों की ओर........जीवन में सब कर लों पर दोस्तों पर यकीन भी सोच समझ कर
करना. अफसोस यह है कि कोसने और अपनी दुर्गति होने की संभावना मानकर वो
गुजरात चली गई..............जो दोस्त होने का दावा करती थी बस याद आये
दुष्यंत कुमार कि
"चट्टानों पर से गुजरा तो पाँवों के छाप पड गये
सोचो कितना बोझ लेकर गुजरा हुंगा मै"
पिछले
एक डेढ़ साल में मै इतना हैरान परेशान रहा कि जीवन में कभी नहीं रहा और इस
सबमे मजेदार यह था कि किन्ही अपने बहुत करीबी दोस्तों ने ये सिला दिया,
दोस्ती का अच्छे सब्जबाग दिखाकर जीवन को तहस नहस कर दिया, हालांकि कुछ
दोस्तों ने चेताया भी था पर लगा कि एक बार क्यों ना विश्वास कर ले पर सबने
छल किया इस छोटी सी अवधि में तीन शहर में डेरा उठाये घूमने और हर जगह नए
सिरे से चूल्हा बसाने के लिए,सामान ढोना, कागजी कार्यवाही और फ़िर गैस आदि
के झंझट...... बहुत जिगरा लगता है गुरु......कहना और भुगतना बहुत् मुश्किल
है. शुक्र है दोस्तों की भीड़ में कुछ अपने थे और फ़िर परिवार के लोगों ने इस
नालायकी भरे फैसले में साथ दिया वरना टूटा तो पहले से ही था साथ ना मिलता
तो खत्म ही हो जाता........बात इसलिए आज यहाँ खुलकर लिख रहा हूँ कि एक
मित्र से अभी बात हो रही थी जो एक बड़ा फैसला लेकर बड़ा नाम कीर्ति और यश की
पताकाएं एवं बड़ा बैनर वो भी अखबारी दुनिया का, छोड़कर नया कुछ करने जा रहे
है उन्होंने पूछ लिया कि क्या यह सब आसान है........मै क्या जवाब देता. पर
भगवान ना करे कि उन्हें मेरे जैसे
कमीने
दोस्त मिल जाये जो जीवन बर्बाद कर दे लोक लुभावन नारों से और वादों से.
आजतक किसी के बुराई और बद दुआओं का काम नहीं किया है पर ईद की पूर्व शाम पर
उस दोस्त को कोसने को जी चाहता है जिसने एक भले आदमी अकेले आदमी को तीन
तीन शहरों में सामान ढोने और हर बार नए सिरे से बसने का दर्द दिया इससे
विस्थापन की पीड़ा और उन लोगो की तकलीफ समझ आई जो हर तीन चार माह में चल
देते है सर पर अपने मैले कुचेले सामान और दुःख की गठिया का दर्द लेकर नए
ठिकानों की ओर........जीवन में सब कर लों पर दोस्तों पर यकीन भी सोच समझ कर
करना. अफसोस यह है कि कोसने और अपनी दुर्गति होने की संभावना मानकर वो
गुजरात चली गई..............जो दोस्त होने का दावा करती थी बस याद आये
दुष्यंत कुमार कि
"चट्टानों पर से गुजरा तो पाँवों के छाप पड गये
सोचो कितना बोझ लेकर गुजरा हुंगा मै"
"चट्टानों पर से गुजरा तो पाँवों के छाप पड गये
सोचो कितना बोझ लेकर गुजरा हुंगा मै"
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