यह
कविता दोस्तों, कम से कम कुछ दोस्तों ने पढ़ी है, फिर भी दोबारा पढ़ने और
पढ़वाने का मन कर रहा है, न जाने क्यों....या शायद जाने क्यों...:)
वसीयत
छूट गयीं जो अधूरी, मुलाकातें तुम्हें देता हूँ
हों न सकी जो बातें, तुम्हें देता हूँ
जो कवितायें लिख न पाया, तुम्हें देता हूँ
जो किताबें पढ़ न पाया, तुम्हें देता हूँ
मर कर भी न मरने की यह वासना
स्मृति की बैसाखियों पर जीने की यह लालसा
तुम्हारी कल्पनाओं, यादों के आकाश में
तारे की तरह टिमटिमाने की यह कामना
यह भी तुम्हें देता हूँ
जहाँ से शुरू होती है आगे की यात्रा
वहाँ से साथ रहना है सिर्फ़ वह जो किया
अपना अनकिया सब का सब
पीछे छोड़
कभी वापस न आने का वादा
तुम्हें देता हूँ.
साभार Purushottam Agrawal.....
साभार Purushottam Agrawal.....
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