आज अभी मनोज लिमये और प्रीति निगम ने एक दुखद सूचना दी कि राज्य संसाधन केंद्र इंदौर की पूर्व निदेशिका सुश्री कुंदा सुपेकर का आज दिल का दौरा पडने से सुबह दुखद निधन हो गया. ताई के नाम से मशहूर कुंदा जी ने अपने कैरियर की शुरुआत इंदौर के भारतीय ग्रामीण महिला संघ से की थी. स्व कृष्णा अग्रवाल जी के साथ उन्होंने समाजसेवा का ककहरा सीखा और बाद में भारतीय ग्रामीण महिला संघ के अनेक महत्वपूर्ण पदों पर काम कर इस महिला संघ को देश विदेश में पहुंचाया. जब देश में १९९० में अंतर्राष्ट्रीय साक्षरता वर्ष मनाया जा रहा था तो दिल्ली में राष्ट्रीय साक्षरता मिशन के निदेशक लक्ष्मीधर मिश्र ने राज्यों में स्वैच्छिक संस्थाओं को राज्य संसाशन केंद्र देने की बात कही और इस तरह में म प्र में भारतीय ग्रामीण महिला संघ को उनके कामों को देखते हुए राज्य संसाधन केन्द्र की जिम्मेदारी सौपी गयी, कुंदा ताई इस केन्द्र की निदेशक बनी और तब से पुरे प्रदेश में और देश में साक्षरता के नए प्रयास, जिला स्तर पर पाठ्य सामग्री का निर्माण, नवाचार और स्थानीय परिवेश के हिसाब से सामग्री का विकास और ढेर सारे प्रयोग हुए. यह सब कुंदा ताई की समझ बूझ और दूरंदेशी का नतीजा था कि जिले में साक्षरता समितियों को विकेन्द्रित अधिकार मिले और उन्होंने अपने तईं काम किये. मुझे याद है देवास के साथ साथ अनेक जिलों में उर्दू के प्राईमर भी तैयार किये गए थे जिसमे शासन तैयार नहीं था पर कुंदा जी ने बहुत जोर दिया कि यदि ये जिलों की मांग है तो क्यों शासन के नियम उन पर लागू किये जाये, साथ ही देवास में शिक्षा शास्त्र के तहत एकलव्य में सफल रूप से प्रयोग किये गये शब्द -अक्षर कार्डों का भी प्रयोग ताई के साथ और उनके साथी अंजलि अग्रवाल, अर्चना वाजपेयी, मनोज लिमये, सेमसन और अखिल दुबे के विचार विमर्श के बाद करना तय हुआ था जिसे बाद में देश भर में सराहा गया. मेरा ताई से एक लंबा पारिवारिक नाता रहा जिसमे मैंने उनके साथ जो सीखा खासकरके साक्षरता, समुदाय का उन्मुखीकरण, माहौल बनाना, प्रशिक्षण, मूल्यांकन और नई तकनीकों का समावेश जिसमे किशोर वय के बच्चों को समाहित करते हुए कैसे काम किया जाये. ताउम्र वे गरीब लोगों और महिलाओं की शिक्षा के लिए समर्पित रही भारतीय ग्रामीण महिला संघ में कृष्णा जी के बाद वे एक प्रमुख आधार स्तंभ थी जिन्होंने उस ग्रामीण महिला संघ रूपी बेल को एक घना वट वृक्ष बनाया, राज्य संसाधन केन्द्र की नई बिल्डिंग जापानी दूतावास के सहयोग से बनवाई और राऊ स्थित जीवन ज्योति केन्द्र में पढने वाली गरीब अनाथ लडकियों के होस्टल और हायर सेकेंडरी स्कूल को स्थापित करने में उनका योगदान हमेशा याद रखा जाएगा. इसी राऊ में मैंने कितनी ही गरीब असहाय एवं अनाथ महिलाओं को कई प्रकार के प्रशिक्षण लेते हुए और फ़िर बाद में अपने पैरों पर खड़े होते हुए देखा है. आज जब यह खबर मिली तो मन उचाट हो गया है. अभी मैंने हाल ही में ताई से बात की थी तो उन्होंने कहा कि मेरा भतीजा अब ठीक है, संदीप तू सुबह से आ जा, मै यही परदेशीपुरे में सुभाष नगर में रह रही हूँ भाई के यहाँ, सुबह से आना और यही खाना वगैरह खाना, अपनी भतीजी की शादी में बुलाया था जो परसों ही हुई है अफसोस मै जा नहीं पाया पर ताई से वादा किया था कि इन दस दिनों की छुट्टियों में जरूर आउंगा एक पूरा दिन आपके साथ बैठुंगा और गप्प लडाऊंगा साथ में खाना खायेंगे और प्राथमिक शिक्षा के बारे में कुछ एक्शन प्लान बनाएंगे पर सब अधूरा रह गया. ताई के आख़िरी शब्द याद है अभी भी......"बेटा, कुछ लडकियों के लिए भी करो रे, ये बेचारी गरीब लडकियां पढ़ेंगी नहीं तो आगे कैसे बढेंगी" आज प्रीति ने बताया कि उषा अग्रवाल ने कहा कि "कुंदा बहुत अनुशासन मेटेंन करती थी और कभी किसी को परेशान नहीं किया देखो गयी भी तो आज रविवार के दिन कि किसी को छुट्टी ना लेना पड़े..." सही है जिंदगी भर सबको, देशभर में अनुशासन और महिला सशक्तिकरण की मिसाल बनी मेरी और पुरे देश की कुंदा ताई का यूँ जाना बहुत दुखद है आज देश में जब २०११ के जनगणना के आंकड़े देखते है और साक्षरता की बढ़ी हुई दर देखते है तो इसके मूल में कुंदा सुपेकर जैसी साहसिक और बुद्धिमान महिलाओं को सलाम करने को जी चाहता है वे आधुनिक युग की पंडिता रमा बाई या सावित्री बाई फूले थी जिसने देश भर में सबके लिए शिक्षा-साक्षरता का माहौल बनाया और इसके लिए मरने तक अपने तईं पुरे प्रयास शिद्दत और इमानदारी से किये. यह कहना कि कुंदा जी आज नहीं है गलत है उनकी जलाई हुई शिक्षा और साक्षरता की मशाल यहाँ - वहाँ जल रही है और नित नया उजाला फैला रही है . कुंदा जी आपको आपके जज्बे और पुरे सार्थक जीवन को सलाम और नमन. इंदौर और देश ने ना मात्र इन दिनों शालिनी ताई मोघे और कुंदा ताई को खोया है वरन म प्र से दो जमीनी कार्यकर्ता भी खोये है जिन्होंने प्रसिद्धी से दूर और नाम या पुरस्कारों की दौड़ से दूर रहकर सार्थक काम किये और ये इतने रेडिकल काम थे कि शायद आनेवाली पीढियां कभी विश्वास भी नहीं करेंगी कि ये साधारण कद काठी वाली महिलायें जो बहुत ही साधारण सी पृष्ठभूमि से आई थी इतना बड़ा बदलाव कर सकती थी पर सच तो सच है. सलाम ताई आप हमेशा रास्ता दिखाती रहेंगी यह विश्वास है.
आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत...
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उनका जाना वाकई देश के लिए क्षति की बात है...