बचपन
की स्मृतियाँ, कक्षा तीन में बड़े पाठ और ससुरा नील आर्मस्ट्रोंग का नाम
याद करना बड़ा मुश्किल था सही ना लिखने पर नंबर कटते थे और हाथ पर बेंत
मिलती सो अलग, पर लगता था कि कैसा होगा वो आदमी जो चाँद पर पहुंचा था
क्योकि हम तो पढते थे "मैया मै तो चन्द्र खिलौना लेहू", मालवीय जी पढ़ाते थे
चाव से. चाँद को लेकर बड़ी फेन्टेसी थी किशोरावस्था में, जवानी में, और
हिन्दी - उर्दू में चाँद को लेकर बहुत कुछ पढ़ा, गीत
सुने .......पर हमेशा से नील आर्मस्ट्रोंग नामक शख्स से जलन रही कि साला
चाँद पर पहुँच गया और घूम आया, यही वो समय था जब शोले रिलीज हुई थी और ए के
हंगल साहब के मुरीद हो गये सफदर हाशमी ने नाटक सिखाया, भोपाल गैस त्रासदी
के बाद देश भर में नाटक किये पहली बार नुक्कड़ नाटक शब्द सुना और फ़िर उसे
जीवन में उतारा भी, साथ ही एम के रैना, मोहन महर्षि और हबीब जी से नाटक की
बारीकियां सीखी. भारत ज्ञान विज्ञान जत्थे ने मौके दिए देश भर में नाटक
करने के तब जाना कि इप्टा क्या है और ए के हंगल क्या है. उनके लेख समकालीन
जनमत में पढ़े, हंस में पढ़े और कला अनुशासन से जुडी पत्रिकाओं में पढ़े. जन
और नाटक की भूमिका को लेकर उनके बहुत स्पष्ट फंडे थे. "शौकीन" फिल्म याद
आती है जहां तीन बूढ़े अपने बुढापे में रति अग्निहोत्री के साथ मन की
मुरादे पूरी करना चाहते है पर कुछ ना करते हुए अंत में ग्लानी से बाहर जाते
है अदभुत फिल्म थी
आज इन दोनों के जाने से बचपन, किशोरावस्था और जवानी की यादे ताजा हो गई और लगा कि समझ बनाने में, वैज्ञानिक समझ बनाने में इन लोगों के कितनी बड़ी भूमिका थी. नमन इन दोनों महान साथियों को, अशोक पांडेय ने सही लिखा है लाल सलाम कामरेड और और अब यह भी लगता है कि ऐसे लोग शायद ही इतिहास में आयेंगे.........
आज इन दोनों के जाने से बचपन, किशोरावस्था और जवानी की यादे ताजा हो गई और लगा कि समझ बनाने में, वैज्ञानिक समझ बनाने में इन लोगों के कितनी बड़ी भूमिका थी. नमन इन दोनों महान साथियों को, अशोक पांडेय ने सही लिखा है लाल सलाम कामरेड और और अब यह भी लगता है कि ऐसे लोग शायद ही इतिहास में आयेंगे.........
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