तुम-सा होने की चाहत तो बहुत थी, पर अब तुमसे रश्क रखते हुए भी खुद सा होना चाहता हूं Gulzar! यार जुलाहे, कैसे लिखते हो इत्ता उम्दा. चलो, आज मेरी वॉल पे भी कर लो मस्ती. क्या याद करोगे मियां...
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गुलज़ार साहब की एक रचना...
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शाम से आंख में नमी-सी है
आज फिर आपकी कमी-सी है
दफ़न कर दो हमें की सांस आए
नब्ज़ कुछ देर से थमी-सी है
वक़्त रुकता नहीं कहीं टिककर
इसकी आदत भी आदमी-सी है
कोई रिश्ता नहीं रहा फिर भी
एक तसलीम लाज़मी सी है
Love you Gulzar saheb!
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गुलज़ार साहब की एक रचना...
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शाम से आंख में नमी-सी है
आज फिर आपकी कमी-सी है
दफ़न कर दो हमें की सांस आए
नब्ज़ कुछ देर से थमी-सी है
वक़्त रुकता नहीं कहीं टिककर
इसकी आदत भी आदमी-सी है
कोई रिश्ता नहीं रहा फिर भी
एक तसलीम लाज़मी सी है
Love you Gulzar saheb!
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