विकास की समस्त योजनाओं का फेल होना हिन्दुस्तान की सबसे बड़ी चुनौती है गत ६६ बरसो में जिस तरह से अवाम ने अपना विश्वास "सरकार" नामक संस्था पर खोया है वो शायद दुनिया के किसी कोने में नहीं देखने को मिलेगा...........पिछले एक बरस से बहुत गंभीरता से सरकारी व्यवस्था के साथ काम कर रहा हूँ लगभग २० % लोग ही ठीक ठाक है और कुछ काम करना चाहते है या जानते है पर बाकी लोग बहुत ही पंगु, अपरिपक्व, आधे अधूरे, भ्रष्ट, गैर जिम्मेदार और अकर्मण्य है. सबसे बड़ी समस्या जिले में भारतीय प्रशासनिक सेवा के एकमात्र अधिकारी "कलेक्टर" का होना है जिसे ३२ से ज्यादा विभागों का ठेका दे दिया गया है वो सारा दिन काम करने के बजाय या जनता के दुःख दर्द सुनने के बजाय सिर्फ और सिर्फ फाईलों पर लगा रहता है 'नियम कायदे और चर्चा करे' जैसे शब्द उसके शगल है और इसके चलते सरकारों ने हर जिले में एक और प्रशासनिक अधिकारी जिला पंचायतो के लिए दिया था जिसका काम जिले में विकास का काम करना था. अफसोस कि इस वर्ग में सरकारों ने चालाकी से डिप्टी कलेक्टर रेंक के अधिकारियों को भर दिया और ये भी इन भाप्रसे के लोगो पर निर्भर हो गए और ये भाप्रसे के तुर्क अपने आपको तुर्रे खां समझते हुए जिले के राजा बने फिरते है इनके बच्चे, इनकी बीबी, इनके माँ-बाप सरकारी सुविधाएँ भकोसते है और इनके चापलूस चपरासी जिले के दलाल बन् जाते है. यदि संविधान में संशोधन हुआ है तो विकेन्द्रीकरण सही मायने में क्यों नहीं होता, क्यों सारे काम जिले में कलेक्टर पर आकर अटक जाते है, वो क्यों जिले का खुदा बन् जाते है. बेहद अक्खड, बद मिजाज़, रूखे, असंवेदनशील और वास्तविकता से कोसो दूर अपनी दुनिया में व्यस्त और सरकारों में बैठे नेताओं को खुश करने में लगे और मुख्यमंत्री की Good book में रहने के लिए बेताब ये जिले के एकमात्र अधिकारी बने रहते है. यह व्यवस्था बेकार है अब समय आ गया है कि इस अंगरेजी व्यवस्था को बदला जाए और नए सिरे से नई सोच, नई परिस्थितियों के अनुसार प्रशासन नामक ढाँचे का पुनर्गठन किया जाए जहां ना कलेक्टर ताकतवर हो, ना नेता, ना टुच्चे अधिकारी- बस एक नया तंत्र हो जो सचमुच जनोन्मुखी हो और विकास की बात करे, इनसे मिलने का समय ना लेना पड़े आम आदमी को, और एक ही छत के नीचे सारी समस्याओं का हल हो जाए................
आभा निवसरकर "एक गीत ढूंढ रही हूं... किसी के पास हो तो बताएं.. अज्ञान के अंधेरों से हमें ज्ञान के उजालों की ओर ले चलो... असत्य की दीवारों से हमें सत्य के शिवालों की ओर ले चलो.....हम की मर्यादा न तोड़े एक सीमा में रहें ना करें अन्याय औरों पर न औरों का सहें नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." मैंने भी ये गीत चित्रकूट विवि से बी एड करते समय मेरी सहपाठिन जो छिंदवाडा से थी के मुह से सुना था मुझे सिर्फ यही पंक्तिया याद है " नफरतों के जहर से प्रेम के प्यालों की ओर ले चलो...." बस बहुत सालो से खोज जारी है वो सहपाठिन शिशु मंदिर में पढाती थी शायद किसी दीदी या अचार जी को याद हो........? अगर मिले तो यहाँ जरूर पोस्ट करना अदभुत स्वर थे और शब्द तो बहुत ही सुन्दर थे..... "सब दुखो के जहर का एक ही इलाज है या तो ये अज्ञानता अपनी या तो ये अभिमान है....नफरतो के जहर से प्रेम के प्यालो की और ले चलो........"ये भी याद आया कमाल है मेरी हार्ड डिस्क बही भी काम कर रही है ........आज सन १९९१-९२ की बातें याद आ गयी बरबस और सतना की यादें और मेरी एक कहानी "सत...
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